जनता दल यूनाइटेड के मुखिया नीतीश कुमार और बीजेपी के संबंध क्या एक बार फिर बेहद ख़राब हो गए हैं। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि हाल ही में हुई कई घटनाएँ इस ओर इशारा करती हैं। ताज़ा घटना रविवार (2 जून) की है। बीजेपी और जेडीयू ने इफ़्तार पार्टियों का आयोजन किया था।
जेडीयू ने हज भवन में इफ़्तार पार्टी का आयोजन किया था लेकिन बीजेपी का कोई भी नेता इसमें नज़र नहीं आया। वहीं, बीजेपी की ओर से उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने इफ़्तार पार्टी का आयोजन किया था लेकिन यहाँ जेडीयू का कोई नेता नहीं आया। मतलब यह कि दोनों ही दलों के नेताओं ने एक-दूसरे की पार्टियों में जाने से किनारा कर लिया। राज्य में मिलकर सरकार चला रहे दोनों दलों के इस रुख को लेकर सियासी गलियारों में चर्चाएँ भी हुईं। महागठबंधन की ओर से पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने पटना स्थित अपने आवास में इफ़्तार पार्टी का आयोजन किया। इस मौके़ पर पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी और आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी मौजूद रहे।
इससे पहले केंद्र सरकार में शामिल होने के मुद्दे पर भी नीतीश कुमार ने नाराज़गी जताई थी। जेडीयू राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की अहम सहयोगी है। लेकिन केंद्र में सिर्फ़ एक मंत्री पद दिए जाने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि उन्हें कैबिनेट में आनुपातिक प्रतिनिधित्व चाहिए न कि सिर्फ़ सांकेतिक। इससे पता चल गया था कि नीतीश कुमार बीजेपी से नाराज़ हैं।
इसके बाद नीतीश ने एक और बड़ा बयान देकर जता दिया कि वह बीजेपी से दो-दो हाथ करने से डरने वाले नहीं हैं। नीतीश ने कहा, ‘बिहार में एनडीए की जो जीत हुई है, वह किसी व्यक्ति विशेष की वजह से नहीं हुई है, यह बिहार की जनता की जीत है। यदि कोई यह समझता है कि यह जीत उसकी वजह से हुई है, तो यह उसका भ्रम है।’ इस बयान के बाद तो यह तय हो गया कि नीतीश ने सीधा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा है।
बता दें कि नीतीश बीजेपी के साथ दो बार बिहार की सरकार चला चुके हैं और अलग भी हो चुके हैं। लेकिन अब ऐसा लगता है कि नीतीश फिर से बीजेपी के साथ आकर घुटन महसूस कर रहे हैं और गठबंधन से बाहर निकल सकते हैं।
2 जून को नीतीश कुमार ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया। उन्होंने मंत्रिमंडल में 8 नए मंत्रियों को शामिल किया लेकिन इसमें से बीजेपी से एक भी मंत्री नहीं बनाया गया। सवाल यह उठ रहा है कि आख़िर बीजेपी को मंत्रिमंडल के विस्तार में क्यों नहीं शामिल किया गया?
जब इसे लेकर सियासी गलियारों में चर्चा होने लगी तो बीजेपी नेता और उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को ट्वीट कर सफ़ाई देनी पड़ी। मोदी ने कहा कि नीतीश ने बीजेपी को मंत्रिमंडल में शामिल होने का ऑफ़र दिया था लेकिन पार्टी इस बारे में भविष्य में विचार करेगी।
पिछले विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल को 80 जबकि जनता दल यूनाइटेड को 71 सीटें मिलीं थीं। कांग्रेस को 27 सीटें जबकि भारतीय जनता पार्टी को 53 सीटें मिलीं थीं। 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में बहुमत के लिए 122 विधायक होने ज़रूरी हैं। महागठबंधन के साथ सरकार चलाने के बाद 2017 में नीतीश ने इससे नाता तोड़ लिया था और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली थी।
हालाँकि नीतीश बिहार में अकेले दम पर सरकार चला पाने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन चुनाव में मिली जोरदार सफलता से शायद उन्हें ऐसा लग रहा है कि वह ऐसा कर सकते हैं। लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 16 सीटों पर जीत मिली है।
हो सकता है कि नीतीश के मन में यह ख़्याल आ गया हो कि आरजेडी, कांग्रेस के राज्य में लगभग सूपड़ा साफ़ होने के बाद वह अगले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को अकेले ही हरा सकते हैं। उनके तेवर तो कुछ यही कहानी बयाँ करते हैं।
‘वंदे मातरम’ पर रहे थे चुप
आपको याद दिलाते हैं कि लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान बिहार की एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी जब लगातार ‘वंदे मातरम’ के नारे लगा रहे थे तो मंच पर मौजूद नीतीश कुमार चुप बैठे रहे थे। इसका वीडियो सोशल मीडिया पर ख़ूब वायरल हुआ था। उस दौरान नीतीश ख़ासे असहज दिखाई दिए थे। उसके बाद यह सवाल उठा था कि क्या नीतीश को अपने मुसलिम वोट बैंक के खिसकने का डर था और इसी वजह से उन्होंने ‘वंदे मातरम’ का नारा नहीं लगाया था। बीजेपी के राष्ट्रवाद को लेकर है रार
लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करने के बाद यह माना जा रहा है कि बीजेपी राष्ट्रवाद के अपने एजेंडे को और जोर-शोर से आगे बढ़ाएगी। चुनाव के दौरान भी बीजेपी का मुख्य मुद्दा राष्ट्रवाद ही था। लेकिन लग रहा है कि नीतीश अनुच्छेद 370, धारा 35ए, तीन तलाक क़ानून, राम मंदिर और समान नागरिक संहिता जैसे बीजेपी के मुद्दों पर उसे समर्थन नहीं देंगे। इन मुद्दों को लेकर नीतीश और उनकी पार्टी पहले भी बीजेपी से अलग रुख ज़ाहिर कर चुकी है। और अब यह माना जा रहा है कि राष्ट्रवाद का यह मुद्दा इन दोनों दलों के अलग होने का कारण बनेगा। संभावना यह भी जताई जा रही है कि वह महागठबंधन से एक बार फिर बातचीत कर सकते हैं, वरना उनके पास अकेले चुनाव लड़ने का विकल्प तो खुला ही है।
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