ऐसे समय जब पूरी दुनिया में वामपंथ का मर्सिया पढ़ दिया गया है, भारत में दक्षिणपंथी और विभाजनकारी ताक़तें हावी हैं और बीजेपी व नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है, इसके उलट वामपंथी दलों ने बिहार में ज़बरदस्त चुनावी नतीजे लाकर सबको हैरत में डाल दिया है।
बिहार विधानसभा के 1965 के चुनाव में 35 सीटें जीत कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सबको हैरत में डाल दिया था, उसके बाद यह पहला मौका है जब वामपंथी दलों का इस तरह उभार हुआ है।
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वाम दलों ने जीतीं 16 सीटें
बिहार विधानसभा के लिए हुए इस बार के चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी -लिबरेशन ने 12 सीटें, सीपीआई ने 2 और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी यानी सीपीआईएम ने 2 सीटें जीती हैं। यानी इन तीन वाम दलों ने कुल मिला कर 16 सीटें जीत ली हैं। महागठबंधन के हिस्सेदार के रूप में सीपीआईएमएल-लिबरेशन ने 19, सीपीआई ने 6 और सीपीआईएम ने 4 सीटों पर चुनाव लड़ा था।वाम दलों ने अगियाँव, आरा, अरवल, बलरामपुर, विभूतिपुर, दरौली, दरौंदा, डुमराँव, घोसी, काराकाट, मांझी, मटिहानी, पालीगंज, तरारी, ज़ीरादेई, बछवाड़ा, बखरी और दूसरे कई जगहों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से ज़्यादातर वे इलाक़े हैं, जहाँ इन दलों का पुराना संगठन रहा है।
पुराना प्रभाव क्षेत्र
ये ख़ास कर वे इलाक़े हैं, जो सीपीआईएमल- लिबरेशन के संसदीय राजनीति में भाग लेने के फ़ैसले के पहले के प्रभाव क्षेत्र हैं। इनमें से अरवल तो बेहद मशहूर है, जहां भूमि क़ानूनों और न्यूनतम मज़दूरी से जुड़े नियमों को लेकर ज़मींदारों के ग़ैरक़ानूनी गुट रणवीर सेना और माले के बीच ख़ूनी संघर्ष हुआ था, जिसमें दोनों ही पक्ष के कई लोग मारे गए थे।काराकाट वह इलाक़ा है जो सीपीआई का गढ़ आज़ादी के समय से ही है और 1952 में वह ज़मीनदारी उन्मूलन, बटाईदार, जोतदार और भूमि-संघर्षों को लेकर चर्चा में आया था।
बिहार का लेनिनग्राड
इसके अलावा इन वाम दलों, ख़ास कर सीपीआई का मजबूत आधार बेगूसराय और उसके आस-पास के ज़िलों में 1960 के दशक से ही रहा है। इन इलाक़ों को किसी समय ‘बिहार का लेनिनग्राड’ कहा जाता था।1956 के उपचुनाव में अप्रत्याशित जीत से लबरेज सीपीआई ने 1957 में हुए विधानसभा चुनाव में 60 उम्मीदवार मैदान में उतारे और 15 प्रतिशत मत प्राप्त कर 7 सीटों पर जीत दर्ज की थी। संगठन में फैलाव और लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव में जीत का सिलसिला सत्तर, 80 और 90 के दशक तक चलता रहा।
वाम दलों का विस्तार
सीपीआईएम भी अपनी हैसियत के मुताबिक़, सत्तर के दशक से ही सियासी राजनीति में ठीक-ठाक प्रदर्शन कर रही थी। इनकी मजबूती के पीछे मूल कारण यह था कि दोनों वाम दलों के पास क्रमशः सुनील मुखर्जी तथा गणेश शंकर विद्यार्थी सरीख़े और सुलझे हुए कद्दावर नेता थे, जो विभिन्न राजनीतिक कार्यक्रमों के माध्यम से ग़रीब-ग़ुरबों के हक़ की लड़ाई लड़ने का काम करते थे।लेकिन लालू यादव के उदय और मंडल आन्दोलन ने तमाम वाम दलों की जड़ों में मट्ठा डाल दिया। इन वाम दलों ख़ास कर सीपीआई का जनाधार दो अलग-अलग हिस्सों में था।
मंडल आन्दोलन
इनका आधार एक ओर ग़रीब-गुरबा, खेतिहर मज़दूर, भूमिहीन तबक़ा में था तो दूसरी ओर ठीक इसके उलट बिहार की दबंग मानी जाने वाली जाति भूमिहार में था। भूमिहार मोटे तौर पर काश्तकार और बड़ी जोत वाले थे।नब्बे के दशक में लालू प्रसाद यादव के उदय के आस-पास ही मंडल आन्दोलन चला।
वाम दलों का स्टैंड यह था कि वे जिस वर्गविहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य रखते हैं, उसमें इस तरह की समस्या नहीं होगी और उसमें किसी तरह की जाति भी नहीं होगी। वह वर्गविहीन समाज होगा। वर्गहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य रखने वाले वर्ण की सच्चाई को समझने में नाकाम रहे।
वाम दलों ने मंडल कमीशन के तहत मिलने वाले आरक्षण का विरोध किया। इसके पीछे सैद्धांतिक सोच के अलावा इन पार्टियों के नेतृत्व पर ब्राह्मणों और दूसरे सवर्णों का काबिज होना भी है। पार्टी का जनाधार बुरी तरह टूटा, पिछड़ी जातियों के काडर लालू की पार्टी में चले गए। सीपीआई के साथ भूमिहार रह गए।
लालू का समर्थन
लेकिन पार्टी ने दूसरी ग़लती लगभग इसी समय यह की उसने सांप्रदायिकता का विरोध करने के नाम पर लालू का ज़ोरदार समर्थन किया। नतीजा यह निकला कि उसने लगभग पूरे लालू राज में किसी तरह का कोई आन्दोलन नहीं किया, कोई मुद्दा नहीं उठाया, पार्टी बस लालू का पिट्ठू बन कर रह गई। नतीजा यह निकला कि पार्टी का बचा-खुचा जनाधार भी खिसक गया।नेता विहीन तथा कैडरों के बीच निराशा होने के कारण सीपीआई और सीपीएम ने अपने आप को पूरी तरह समाप्त कर लिया। 2015 के विधानसभा चुनाव में सीपीआई ने 98 तथा सीपीएम ने 38 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, एक को भी जीत नहीं मिली।
ख़ात्मा
छह दशक की चुनावी राजनीति में पहली बार ऐसा हुआ कि सीपीआई पूरी तरह से साफ़ हो गई। सीपीएम की सियासी पारी 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में ही समाप्त हो गई। पिछले विधानसभा चुनाव में सीपीआई को मात्र 1.4 प्रतिशत वोट मिले।लंबे अंतराल के बाद सीपीआई की रौनक बीते साल लौटी जब कन्हैया कुमार को बेगूसराय से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया गया। वह उसमें बुरी तरह हारे, पर पार्टी के काडर में उत्साह बढ़ने में कामयाब रहे।
सीपीआईएमएल- लिबरेशन
इन सबसे अलग सीपीआईएमएल-लिबरेशन भूमि सुधार से जुड़े अपने एजेंडे को लागू करने में लगा रहा। वह भूमिहीनों, सीमांत किसानों, खेतिहर मजदूरों और दूसरे ग़रीबों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रहा। पिछड़ों में उसकी पहचान बनी और पकड़ भी।लिबरेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए कहा, ‘यह अच्छी बात हुई कि बेरोज़गारी, ग़रीबी, शिक्षा और दूसरी बुनियादी ज़रूरतों को चुनावी मुद्दा बनाया गया। हम लॉकडाउन के समय ग़रीबों के साथ खड़े रहे, हमने बाढ़ के समय उनका साथ दिया। कुल मिला कर स्थिति यह रही कि हमारे किए हुए काम को लोगों ने याद किया। दूसरी ओर डबल इंजन की सरकार ने उनके लिए इस दौरान कुछ नहीं किया।’
दीपांकर भट्टाचार्य तो इस जीत से इतने उत्साहित हैं कि उन्होंने कहा कि महागठबंधन में वाम दलों और कांग्रेस को 50-50 सीटें मिलनी चाहिए थीं, यह अधिक व्यावहारिक हुआ होता।
आगे?
वाम दलों का आगे का क्या रास्ता है, सवाल यह उठता है। क्या वे इसे आधार बना कर आगे की लड़ाई लड़ेंगे और एक बार फिर लोगों को अपने साथ लामबंद कर सकेंगे, यानी यह क्षणिक और तात्कालिक जीत साबित होगी।दीपांकर भट्टाचार्य की बातों से इसका संकेत मिलता है। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि जिस 25-सूत्री कार्यक्रम की बात महागठबंधन अब कहने लगा है वह दरअसल हमारा कार्यक्रम है। हम उसे आगे बढ़ाएंगे।
कार्यक्रम
चुनाव के पहले एक पत्रकार से बात करते हुए माले लिबरेशन के महासचिव ने कहा था कि महागठबंधन की सरकार बनी तो हम उसमें शामिल हों या नहीं, लेकिन हम अपने कार्यक्रम को शामिल करवाएंगे। हमारे पूरे कार्यक्रम को लागू करना उनके लिए शायद मुमिकन न हो, पर आशंकि रूप से तो हम करवा ही लेंगे।अब जबकि महागठबंधन के साथ वाम दलों के विधायकों को विपक्ष में बैठना होगा, क्या ये दल ज़मीन, बटाई, काश्तकारी, न्यूतनम मज़दूरी जैसे मुद्दों पर आन्दोलन तेज़ करेंगे या एक बार फिर पहले की तरह सुस्त हो जाएंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।
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