अयोध्या मामले में शनिवार को सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने वाला है।
क्या कोर्ट को इस बात पर अपनी राय देनी है कि विवादित जगह पर पहले राम मंदिर था या नहीं? क्या अदालत को इस मुद्दे पर अपना फ़ैसला सुनाना है कि 6 दिसंबर 1992 को जो इमारत तोड़ी गई, वह मंदिर था या मसजिद? क्या कोर्ट को यह तय करना है कि अगर वह इमारत मसजिद थी तो उसे बाबर ने बनवाया था या किसी और ने? क्या न्यायालय को यह पता लगाना है कि उस भवन में मूर्तियाँ कब और किसने रखीं? क्या कोर्ट को यह आदेश देना है कि वहाँ मंदिर बनाया जाये या मसजिद?
…या कोर्ट को केवल यह निश्चित करना है कि उस जगह पर क़ानूनी तौर पर किसका क़ब्ज़ा बनता है?
जी हाँ, सुप्रीम कोर्ट को यही तय करना है कि अयोध्या में जिस जगह कभी राम जन्मभूमि/बाबरी मसजिद के नाम की इमारत थी, उस जगह पर क़ानूनन किसका अधिकार बनता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी 30 सितंबर 2010 को दिए गए अपने फ़ैसले में ज़मीनी क़ब्ज़े का मामला ही सुलझाया था और किसी भी एक पक्ष के हक़ में सारे सबूत न पाते हुए प्रत्येक पक्ष को बराबर-बराबर हिस्सा देने का आदेश दिया था। इसमें भवन के मुख्य गुंबद जिसके नीचे रामलला की मूर्ति है, उसके नीचे वाले हिस्से को मिलाकर कुल एक-तिहाई हिस्सा एक पक्ष को, भवन के बाहर राम चबूतरे, सीता रसोई और भंडारे वाले हिस्से को मिलाकर कुल एक-तिहाई हिस्सा दूसरे पक्ष को और परिसर का बाक़ी बचा एक-तिहाई हिस्सा तीसरे पक्ष को दिया गया था।
लेकिन मुक़दमे में दो पक्ष और थे। बल्कि मुक़दमेबाज़ी की शुरुआत इन दो पक्षों ने ही की थी।आख़िर उन दोनों की अदालत से क्या माँग थी और उन्हें कोर्ट की तरफ़ से क्या जवाब मिला? आइए, अयोध्या मुक़दमे से जुड़ी इस सीरीज़ की पहली कड़ी में आज हम यही पता करते हैं कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में जो पाँच मुक़दमे थे और जो अब सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं, वह किसने और कब दायर किए थे और उन्होंने अदालत से क्या-क्या माँगें की थीं। लेकिन आगे बढ़ने से पहले उस ऐतिहासिक घटना का ज़िक्र कर दिया जाए जिसके बाद ये मुक़दमेबाज़ियाँ शुरू हुईं।
22/23 दिसंबर 1949 की रात को बाबरी मसजिद की इमारत के अंदरूनी अहाते का ताला तोड़कर कुछ लोगों ने वहाँ राम की मूर्तियाँ रख दीं और वहाँ भजन-कीर्तन शुरू कर दिया। स्थानीय मुसलमानों ने इसका प्रतिवाद किया। इसके बाद प्रशासन ने इमारत और उसके आसपास के इलाक़े को अटैच कर लिया और एक रिसीवर भी नियुक्त कर दिया।
मुक़दमा नंबर 1 : पूजा चलती रहे, मूर्तियाँ बनी रहें
पहला मुक़दमा (मु. सं. 2, 1950) गोपाल सिंह विशारद नामक एक वकील ने 16 जनवरी 1950 को फ़ैज़ाबाद सिविल कोर्ट में किया था। यह मुक़दमा 5 मुसलिम नागरिकों (प्रतिवादी 1-5) और फ़ैज़ाबाद के कमिश्नर, सिटी मजिस्ट्रेट, एसपी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश राज्य (प्रतिवादी 6 से 9) के ख़िलाफ़ किया गया। जब मामला हाईकोर्ट में आया तो सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा भी इस केस से जुड़ गए।
गोपाल सिंह विशारद ने अपने अभियोग में लिखा था कि मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूँ और मैं अपनी आस्था के अनुसार भगवान राम के जन्मस्थान पर रखी गई उनकी मूर्ति और चरण पादुका की पूजा करता रहा हूँ। लेकिन 14 जनवरी 1950 को जब मैं राम जन्मस्थान पर पूजा करने गया तो शासन द्वारा मुझे ऐसा करने से रोका गया। पता चला कि प्रतिवादी (1-5) राज्य के अधिकारियों के सहयोग से हिंदुओं को राम जन्मस्थान पर पूजा करने से रोक रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य अपने अधिकारियों के द्वारा हिंदुओं पर दबाव बना रहा है कि वे ये मूर्तियाँ हटा लें।
विशारद ने माँग की कि उनको और बाक़ी हिंदुओं को राम जन्मस्थान पर अबाध रूप से पूजा-अर्चना करने का अधिकार दिया जाए और मूर्तियों को वहाँ से किसी भी हालत में नहीं हटाया जाए।
उनके आवेदन पर अदालत ने 16 जनवरी 1950 को विवादित स्थान से मूर्तियों को हटाने पर अस्थायी रोक लगा दी जिसमें तीन दिन बाद हल्का सुधार किया गया। अगले साल 3 मार्च 1951 को इस अस्थायी रोक को मुक़दमे का फ़ैसला होने तक के लिए स्थायी रोक में तब्दील कर दिया गया। जज ने रोक को स्थायी करने के ये कारण बताए -
1. जब यह मुक़दमा क़ायम हुआ था, उस दिन विवादित जगह पर मूर्तियाँ थीं।
2. कुछ मुसलिम नागरिकों ने यह हलफ़नामा दिया है कि 1936 के बाद वहाँ नमाज़ नहीं पढ़ी गई यानी तब से यह जगह हिंदुओं के क़ब्ज़े में है।
3. इस इलाक़े में और भी मसजिदें हैं और यदि यह रोक जारी रहती है तो उससे स्थानीय मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करने में कोई रुकावट नहीं आएगी।
4. यदि मूर्तियाँ हटा ली गईं तो मुद्दई के राम जन्मस्थान पर पूजा करने के धार्मिक अधिकारों का हनन हो सकता है।
1 फ़रवरी 1986 को दर्शनार्थियों और मूर्ति के बीच लगे गेट का ताला खुलने से उनका दूसरा मक़सद भी एक तरह से पूरा हो गया। इसी माह उनका निधन हो गया और उनके बेटे राजेंद्र सिंह ने वादी के रूप में उनकी जगह ले ली।
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मुक़दमा नंबर 2 : समान मुक़दमा, मगर नोटिस के साथ
5 दिसंबर 1950 में फ़ैज़ाबाद सिविल कोर्ट में एक और मुक़दमा (मु. सं. 25, 1950) दायर किया गया। इस मुक़दमे के तहत परमहंस रामचंद्र दास ने क़रीब-क़रीब वही माँगें रखी थीं जो विशारद के मुक़दमे में थीं - कि जन्मभूमि से मूर्तियाँ न हटाई जाएँ और हिंदुओं को वहाँ पूजा करने से न रोका जाए। अंतर बस यही था कि इस मुक़दमे में सीपीसी के सेक्शन 80 के तहत नोटिस दिया गया था, उसमें नहीं दिया गया था। बाद में इसे विशारद के मुक़दमे के साथ ही जोड़ दिया गया। यह मुक़दमा भी इलाहाबाद हाई कोर्ट के सामने आया था जहाँ इसे मुक़दमा नंबर 2, 1989 का नाम दिया गया। 1990 में इसे वापस लिया गया मानकर रद्द कर दिया गया।
मुक़दमा नंबर 3 - निर्मोही अखाड़े ने कहा, जन्मस्थान हमारा है
यह मुक़दमा - 17 दिसंबर 1959 को- निर्मोही अखाड़े और उसके तत्कालीन महंत जगन्नाथ दास की तरफ़ से फ़ैज़ाबाद सिविल कोर्ट में दायर किया गया।अखाड़े ने राज्य के अलावा रिसीवर, फ़ैज़ाबाद के कमिश्नर, मजिस्ट्रेट, एसपी तथा तीन मुसलिम नागरिकों को भी प्रतिवादी बनाया था। आगे चलकर सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड, उमेश चंद्र पांडे और फ़ारूक़ अहमद भी अपनी इच्छा से इसमें प्रतिवादी बन गए।
निर्मोही अखाड़े ने ख़ुद को रामानंदी संप्रदाय के वैरागियों का समूह बताते हुए कहा कि यह जगह जिसे राम जन्मस्थान कहते हैं, अज्ञात काल से पूजी जा रही है और शुरू से ही निर्मोही अखाड़े के स्वामित्व में है और मठ ही उसका रखरखाव करता आ रहा है, हालाँकि हिंदुओं को पूजा-पाठ की अनुमति दी जाती रही है।
अखाड़े ने 5 जनवरी 1950 को सिटी मजिस्ट्रेट द्वारा इसका चार्ज रिसीवर को दिए जाने की कार्रवाई अपने अधिकारों का उल्लंघन बताया। उसने माँग की कि जन्मस्थान का प्रबंधन हमें दिया जाए क्योंकि मठ का प्रमुख ही इसका सरबराहकार (एजेंट, कारिंदा) है।
अखाड़े ने यह भी बताया कि उसके अधीन कई मंदिर हैं और इसका ख़र्च भक्तों के चढ़ावे से चलता है।
निर्मोही अखाड़ा विशारद की तरह अपने उद्देश्य में तत्काल कामयाब नहीं रहा। वह जिसे जन्मस्थान कहता था, अपने नियंत्रण में नहीं ले पाया। कुछ सालों के बाद भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर के लिए आंदोलन छेड़ दिया और उसके लिए एक ट्रस्ट भी बना। अखाड़े के साथ हितों का टकराव होने के कारण 1989 में एक और मुक़दमा दायर किया गया लेकिन उसके बारे में हम अंत में बात करेंगे।
1989 में यह अन्य मुक़दमों के साथ इलाहाबाद हाई कोर्ट के पास आ गया जिसने 2010 के अपने फ़ैसले में विवादित परिसर का एक-तिहाई हिस्सा उसे दिया लेकिन इसमें वह स्थान नहीं था जिसका नियंत्रण वह चाहता था। इसलिए उसने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील की है और सुप्रीम कोर्ट को उसपर अपना निर्णय देना है।
मुक़दमा नंबर 4 : बाबर ने बनाई मसजिद पर मंदिर नहीं तोड़ा
यह मुक़दमा (मु.सं. 12, 1961) मुसलिम पक्ष द्वारा दायर किया गया जिसमें मुद्दई के रूप में सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और 9 अन्य मुसलिम नागरिक थे। प्रतिवादियों की संख्या 10 थी जिनमें राज्य के अधिकारी और कुछ हिंदू नागरिक थे। बाद में कुछ लोगों की मौत और कुछ नए लोगों-संस्थाओं के इस मुक़दमे से जुड़ने के कारण वादियों की संख्या 6 और प्रतिवादियों की 17 हो गई।
इलाहाबाद हाई कोर्ट में इसकी मुक़दमा संख्या 4, 1989 के रूप में सुनवाई की गई।
मूल अभियोग में कहा गया कि 1528 में बाबर ने अयोध्या के रामकोट इलाक़े में एक मसजिद बनवाई थी जिसका उपयोग मुसलमान सदियों से करते आए हैं। उसके अनुसार मसजिद के पास एक क़ब्रिस्तान भी है जिसमें वे लोग दफ़नाए गए हैं जो बाबर और अयोध्या के राजा के बीच हुए युद्ध में मारे गए थे। वादियों के मुताबिक़ मसजिद के रखरखाव और ख़र्च के लिए शाही ख़ज़ाने से अनुदान मिलता था जो ब्रिटिश सरकार ने भी जारी रखा लेकिन 1864 के बाद उसके बदले गाँवों में ज़मीन दे दी गई।
अभियोग में यह माना गया है कि मसजिद को लेकर समय-समय पर विवाद उठता रहा है और इस सिलसिले में 1885 में महंत रघुवर दास द्वारा दायर मुक़दमे का भी हवाला दिया गया है जो ख़ुद को जन्मस्थान का महंत बताते थे। रघुवर दास ने मसजिद के अहाते में अंदर लेकिन मुख्य भवन के बाहर 17X21 फुट के एक चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी थी। (देखें संबद्ध नक्शा) लेकिन पहले उनकी अर्ज़ी और बाद में उनकी अपील रद्द कर दी गई।
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वादी पक्ष ने उस मुक़दमे से जुड़ा मैप भी अपनी याचिका में लगाया है और कहा है कि उसमें साफ़ तौर से मसजिद का इलाक़ा दर्शाया गया है और महंत ने भी मसजिद की इमारत में नहीं, बल्कि उसके बाहर मंदिर बनाने की इजाज़त माँगी थी। मगर चूँकि यह इलाक़ा मसजिद के अहाते के भीतर था, इसलिए उनको इसकी अनुमति नहीं मिली।
अपने दावे के पक्ष में वादी ने प्रतिकूल क़ब्ज़े की दलील दी है जिसके अनुसार यदि किसी ज़मीन पर किसी का लंबे समय तक क़ब्ज़ा रहता है तो वह उसका स्वामी बन जाता है।
वादियों के अनुसार यदि यह मसजिद किसी ऐसी जगह पर भी बनी हुई हो जहाँ पहले कभी मंदिर था तो पिछले 433 सालों से मुसलमानों का इसपर प्रतिकूल क़ब्ज़ा होने के कारण हिंदू पक्ष का दावा ख़त्म हो जाता है।
वादियों के अनुसार 1528 में मसजिद के निर्माण काल से लेकर 23 दिसंबर 1949 तक मुसलमानों का इसपर शांतिपूर्ण क़ब्ज़ा था लेकिन उस रात कुछ लोगों ने चोरी-छुपे मूर्तियाँ रख दीं और सरकारी आश्वासन के बाद भी उन्हें तुरंत वहाँ से नहीं हटाया गया। वादियों ने माँग की कि उन्हें मसजिद का क़ब्ज़ा दिलवाया जाए और वहाँ रखी मूर्तियाँ और बाक़ी निर्माण हटाए जाएँ क्योंकि मसजिद में उनके प्रवेश को रोकने से मुसलमानों के धार्मिक अधिकार का हनन हो रहा है।
10-11 साल तक क्यों रुके रहे मुक़दमे?
इस मुक़दमे की कार्रवाई शुरू होने के बाद वादियों ने आवेदन किया कि उन्हें सारे मुसलमानों का प्रतिनिधि माना जाए। इसी तरह हिंदू प्रतिवादियों को सभी हिंदुओं का प्रतिनिधि माना जाए। अदालत ने इसकी अनुमति दे दी। मुक़दमा शुरू होने के क़रीब दो साल बाद जनवरी 1964 में चारों मुक़दमों के पक्षकारों ने अदालत से निवेदन किया कि सारे मामलों को एक साथ सुना जाए। यह भी हो गया। मुक़दमे की कार्रवाई शुरू हुई और कुछ मुद्दों पर फ़ैसले भी हुए मगर 1975 में रिसीवर की नियुक्ति के मामले में अदालती आदेश पर हाई कोर्ट के ने रोक लगा दी जिसे ट्रायल कोर्ट ने सभी मामलों पर रोक समझ लिया और इस कारण अगले 10-11 सालों तक मुक़दमे जहाँ-के-तहाँ रुके रहे। फिर 1989 में जब इस मामले में पाँचवाँ मुक़दमा हुआ तो हाई कोर्ट ने ये सारे मामले अपने पास ले लिए।
2010 के अपने फ़ैसले में इस बेंच ने मुसलिम पक्ष को उस एक-तिहाई ज़मीन का स्वामित्व दिया जो कि मसजिद परिसर के बाहरी अहाते में पड़ती थी। गुंबद के नीचे यानी मसजिद वाला हिस्सा उसे नहीं मिला। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड इससे ख़ुश नहीं था और उसने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी जिसका फ़ैसला शनिवार को आना है।
मुक़दमा नंबर 5 - भगवान और जन्मस्थान की तरफ़ से
यह मुक़दमा (मु. सं. 236, 1989) 1 जुलाई 1989 को फ़ैज़ाबाद के सिविल कोर्ट में दायर किया गया था और यह बाक़ी मुक़दमों से इस मामले में अलग था कि इसमें विवादित स्थल पर रखी गई राम की प्रतिमा और जन्मस्थान ख़ुद वादी थे। यानी प्रतिमा और स्थान ख़ुद अपना मुक़दमा लड़ रहे थे। चूँकि प्रतिमा या स्थान ख़ुद बोल या लिख नहीं सकते, इसलिए इस काम में उनकी मदद कर रहे थे देवकीनंदन अग्रवाल जो ख़ुद भी तीसरे वादी थे। इस मामले में कुल 21 लोगों/संस्थाओं को प्रतिवादी बनाया गया था।
अभियोग में कहा गया कि जिस किसी भी स्थान या प्रतिमा में भक्त देवत्व देखते हैं, वह स्थान व प्रतिमा देवत्व को प्राप्त कर लेती है। यह देवत्व तब तक क़ायम रहता है जब तक वह स्थान मौजूद रहता है और चूँकि स्थान (भूमि) कभी नष्ट नहीं होता है, इसलिए देवत्व भी कभी नष्ट नहीं होता।
वादियों की तरफ़ से यह भी कहा गया कि किसी भी देवस्थान का स्वामी उससे जुड़ा देवता ही होता है चाहे उसकी पूजा लगातार होती हो या न होती हो, यहाँ तक कि इस स्वामित्व के लिए किसी स्थल पर प्रतिमा की मौजूदगी की अनिवार्यता भी नहीं है। यदि भक्त उस स्थल को दैवीय मानते हैं तो उस स्थल को देवत्व प्राप्त है।
इस आधार पर वादियों ने जन्मस्थान और राम की प्रतिमा को वैधिक शख़्सियतें और विवादित स्थल का स्वामी बताया। यह भी दावा किया गया कि बाक़ी के चार मुक़दमों में चूँकि इन्हें शामिल नहीं किया गया है, इसलिए उन मामलों में आनेवाले फ़ैसलों से इन दैवी शख़्सियतों के स्वामित्व पर कोई प्रतिकूल असर नहीं होगा।
वादियों ने बाबरी मसजिद के अस्तित्व पर शंका नहीं की है जैसी कि बाक़ी मुक़दमों में हिंदू पक्षों ने की थी। उनके अनुसार विक्रमादित्य के ज़माने में यहाँ एक मंदिर था जिसे तोड़कर बाबर ने मसजिद बनाई जिसे आज भी बाबरी मसजिद के नाम से जाना जाता है। इसमें मसजिद पर क़ब्ज़े के लिए हुई हिंसक झड़पों का भी हवाला है और कहा गया है कि आख़िरी झड़प 1855 में हुई जब यह भवन हिंदुओं के क़ब्ज़े में था।
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बाबर के सुन्नी होने पर सवाल
वादियों ने मुक़दमा नंबर 4 में मुसलिम पक्षकारों को सारे मुसलमानों का और हिंदू पक्षकारों को सारे हिंदू पक्षों का प्रतिनिधि मानने के अदालती आदेश को भी चुनौती दी और कहा कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड शियाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। उन्होंने बाबर के सुन्नी और मीर बाक़ी और उनके वंशजों के शिया होने पर भी यह कहते हुए सवाल उठाया कि सुन्नी वक़्फ़ का मुतवल्ली शिया कैसे हो सकते हैं।
आख़िर में वादियों ने बाबरी मसजिद के प्रस्तावित स्थानांतरण का ज़िक्र किया और कहा कि उन्हें इसमें कोई आपत्ति नहीं है बशर्ते मसजिद में लगे (पुराने मंदिर के) कसौटी स्तंभों को न ले जाया जाए। उन्होंने कहा कि वैसे भी नया मंदिर बनाने के लिए मौजूदा इमारत को गिराना ही होगा।
मुक़दमा नंबर 5 हिंदू पक्षों द्वारा दायर शेष 3 मुक़दमों से कई मायनों में अलग था।
1. इसमें सीधे-सीधे कोई संस्था नहीं जुड़ी थी। ख़ुद प्रतिमा और जन्मस्थान को वादी बनाया गया था। अनुकूल फ़ैसला आने पर किसी ख़ास संगठन या संस्था (जैसे निर्मोही अखाड़ा) को विवादित परिसर का स्वामित्व मिलने की आशंका समाप्त हो सकती थी।
2. मसजिद के अस्तित्व को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया गया था हालाँकि यह दावा भी किया गया कि मंदिर तोड़कर बनाई गई मसजिद इसलाम की नज़र में वैध नहीं है।
3. यह माना गया था कि रामलला की मूर्तियाँ 22/23 दिसंबर 1949 की रात को रखी गईं और उससे पहले वे वहाँ नहीं थीं लेकिन चूँकि वे पहले ही कह चुके थे कि किसी स्थान के दैवीय चरित्र के लिए मूर्ति या किसी ठोस वस्तु का होना ज़रूरी नहीं है, इसलिए मूर्ति की अनुपस्थिति साबित होने के बावजूद मसजिद के मुख्यगुंबद के नीचे के जन्मस्थान पर उनका दावा कमज़ोर नहीं पड़ता था।
4. यह स्पष्ट किया गया था कि विवादित परिसर को तोड़कर विराट मंदिर बनाया जाएगा जबकि किसी और मुक़दमे में नया मंदिर बनाने की बात नहीं कही गई थी।
बाक़ी मुक़दमों के साथ यह मुक़दमा भी इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन-सदस्यीय बेंच के सामने गया जहाँ अदालत ने 2-1 के बहुमत से वादी को भवन का अंदरूनी हिस्सा प्रदान किया। लेकिन चूँकि बाक़ी दो पक्षों को भी एक-एक-तिहाई जगह दी गई थी सो इससे वादियों का विशाल मंदिर बनाने का मक़सद पूरा नहीं हुआ। निर्मोही अखाड़ा अगर मान भी जाता तो मुसलिम पक्ष मानता, इसकी गुंजाइश संदिग्ध थी। सो सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई जिसका फ़ैसला शनिवार को आना है।
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