अगर इस बात की घोषणा होने में सिर्फ़ 5 दिन बचे हों कि कहीं आपको आपके ही वतन में 'विदेशी' घोषित कर देश से बाहर तो नहीं कर दिया जाएगा तो समझिए कि ऐसे शख़्स के मन में कितना ख़ौफ़ होगा। असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) को लेकर भयंकर ख़ौफ़ का माहौल है। एनआरसी के अंतिम प्रकाशन में बस 5 दिन बचे हैं और हज़ारों लोग इस चिंता में परेशान हैं कि उनका नाम एनआरसी की अंतिम सूची में आ पायेगा या नहीं। और अगर नहीं आया तो, बस इतना सोचने भर से उनकी रुह काँप जाती है। एनआरसी में 40 लाख लोगों की नागरिकता छिनने का ख़तरा है और 31 अगस्त को इसकी फ़ाइनल रिपोर्ट प्रस्तुत की जानी है।
अंग्रेजी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने ऐसे ही कुछ ख़ौफ़जदा लोगों से बात की है। अख़बार में छपी ख़बर के मुताबिक़, 29 साल की गुलबहार बेग़म को अंदेशा है कि उनका नाम एनआरसी की अंतिम सूची में नहीं होगा क्योंकि उनके पिता को पहले ही 'विदेशी' या अवैध रूप से भारत में रहने का दोषी साबित कर दिया गया है। बेग़म एक मुसलिम परिवार से हैं और गुवाहाटी पूर्व से 70 किमी. दूर मोरीगाँव जिले के नेल्ली के बोरखाल गाँव में रहती हैं।
गुलबहार और उनके परिवार का दर्द बहुत बड़ा है। गुलबहार के 69 साल के पिता गुल मुहम्मद मजदूरी करके घर का ख़र्च चलाते थे। 1951 के नेशनल रजिस्टर में गुल मुहम्मद का नाम एक साल के बच्चे के तौर पर शामिल था लेकिन अवैध रूप से असम में रह रहे लोगों की जाँच के लिए बने ट्रिब्यूनल ने उन्हें 2009 में 'विदेशी' घोषित कर दिया और पिछले 18 महीनों से हिरासत में रखा हुआ है।
एनआरसी के अपडेट होने के नियमों के मुताबिक़, जिन लोगों को 'विदेशी' घोषित किया जा चुका है, उन्हें और उनके परिवार के लोगों को एनआरसी में शामिल नहीं किया जाएगा। एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया 2010 में हुई थी और यह सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही है।
गुलबहार कहती हैं, ‘मैं नहीं जानती कि यह व्यवस्था इतनी कठिन क्यों हैं। मेरे पिता 1951 में एनआरसी में थे। लेकिन अब ट्रिब्यूनल की ओर से बताया गया है कि वह 1956 में बांग्लादेश में पैदा हुए थे और अवैध तरीक़े से 1971 में असम में घुसे थे।’ इस सबके बाद गुलबहार के घर में बहुत ज़्यादा आर्थिक दिक्कतें हैं। गुलबहार कहती हैं कि उसका और उसकी बहन का नाम एनआरसी में नहीं आएगा।
गुलबहार यह सोचकर परेशान हैं कि अगर उन्हें इस मामले की जाँच कर रहे ट्रिब्यूनल के सामने ख़ुद को और परिवार के लोगों को 'विदेशी' नहीं साबित करने की लड़ाई लड़नी पड़ी तो वे लोग वकीलों का ख़र्च कहाँ से जुटाएँगे।
गुलबहार के गाँव के दूसरी ओर शरणार्थी कॉलोनी में रहने वाले मंतोष त्रिवेदी में ऐसे ही लाखों लोगों में शामिल हैं जो एनआरसी के ख़ौफ़ में हैं। 45 साल के हिंदू बंगाली मंतोष अपनी माँ और पत्नी का नाम इस लिस्ट में आयेगा या नहीं, इसे लेकर परेशान हैं।
त्रिवेदी की 72 साल की माँ अंजलि के 1955 में बने रिफ़्यूजी रजिस्ट्रेशन सर्टिफ़िकेट को एनआरसी के काम से जुड़े अधिकारियों ने मानने से मना कर दिया है और त्रिवेदी की पत्नी संतोषी के भी इस सूची में आने के बेहद कम आसार हैं। ये दोनों ही एनआरसी के ड्राफ़्ट से बाहर थीं। त्रिवेदी कहते हैं कि हम लोग भारतीय हैं जो धार्मिक उत्पीड़न से परेशान होकर बांग्लादेश से यहाँ आए। वह पूछते हैं कि जो लोग एनआरसी से बाहर रह जायेंगे, उनके साथ सरकार क्या करेगी। द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक़, अजीत तालुकदार, अब्दुल हामिद जैसे कई लोग हैं, जो दिन-रात यह डर खाये जा रहा है कि 31 अगस्त के बाद उनके साथ क्या होगा।
हालाँकि गृह मंत्रालय ने इस बात का भरोसा दिया है कि जो लोग एनआरसी की अंतिम सूची में आने से रह जाएँगे उन्हें तुरंत 'विदेशी' घोषित नहीं किया जायेगा लेकिन फिर भी लोग इस बात को लेकर परेशान हैं कि 1 सितबंर को क्या होगा। मंत्रालय ने यह भी कहा है कि ऐसे लोगों को ट्रिब्यूनल के सामने अपनी बात रखने का पूरा मौक़ा दिया जायेगा। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ हाल ही में इस मुद्दे पर बैठक के बाद असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने इस बात के संकेत दिये हैं कि एनआरसी के अंतिम प्रकाशन को लेकर अगर कोई सवाल उठते हैं तो राज्य सरकार विधेयक लेकर आ सकती है।
क्या है मामला?
1979 में अखिल असम छात्र संघ (आसू) द्वारा अवैध आप्रवासियों की पहचान और निर्वासन की माँग करते हुए 6 साल तक आन्दोलन चलाया गया था। यह आन्दोलन 15 अगस्त, 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ख़त्म हुआ था।
असम समझौते के मुताबिक़, 24 मार्च 1971 की आधी रात तक राज्य में प्रवेश करने वाले लोगों को ही भारतीय नागरिक माना जाएगा।
एनआरसी से प्रभावित होने वाले लोगों में अधिकांश लोग बेहद ग़रीब हैं। उन्हें यह साबित करना पड़ रहा है कि वे या उनके पुरखे असम में 1971 से पहले से बसे हुए हैं। उस समय वोटर कार्ड या फिर आधार जैसी सुविधा नहीं थी, इसलिए उनकी दिक़्क़तें और बढ़ गई हैं। इस मामले में सरकारी अधिकारियों की लापरवाही ने लोगों की जिंदगी को दोज़ख कर दिया है। ऐसा ही एक मामला कुछ समय पहले आया था जब जीवन भर सेना में रहकर देश की सेवा करने वाले मोहम्मद सनाउल्लाह को ‘विदेशी’ घोषित कर दिया गया था और बाद में उन्हें करने ‘विदेशी’ घोषित करने की जाँच रिपोर्ट झूठी होने की बात सामने आई थी।
एनआरसी को 1951 में शुरू किया गया था। 1971 के आसपास पाकिस्तान की सेना से त्रस्त तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के नागरिक भारी संख्या में असम आ गए थे। इसके बाद ही बांग्लादेश का गठन हुआ था। ज़ाहिर है कि पूर्वी पाकिस्तान से जितने भी लोग आये होंगे उनमें से अधिकतर बांग्ला बोलने वाले मुसलिम होंगे और माना जाता है कि यह सब कवायद इन्हीं लोगों को देश से बाहर करने की है।
लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, उत्तर और उत्तर-पूर्व की हरेक जनसभा में इसे देश की सबसे गंभीर समस्या करार देते रहे हैं। शाह तो इन लोगों को दीमक कहकर संबोधित कर चुके हैं, उनके मुताबिक़ ये लोग देश को खोखला कर रहे हैं।
अपनी राय बतायें