असम के विख्यात आंदोलनकारी और विधायक अखिल गोगोई को एनआईए की विशेष अदालत द्वारा यूएपीए (ग़ैर क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) के एक मामले से मुक्त किया जाना बताता है कि उन्हें बदनीयत से फँसाया गया था। अदालत ने साफ़ कहा है कि ऐसे कोई भी सबूत नहीं हैं जिनसे प्रथम दृष्टया भी कहा जाए कि वे किसी भी तरह से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल थे।
एनआईए अदालत के इस फ़ैसले को दिल्ली हाईकोर्ट के उस फ़ैसले के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है जिसमें उसने नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ़ तन्हा को यूएपीए के मामले में ज़मानत दी थी। इस फ़ैसले में उसने यूएपीए के दुरुपयोग की बात भी कही थी।
दिल्ली हाईकोर्ट के उस निर्णय के बाद से लगातार ऐसे फ़ैसले आ रहे हैं जिनसे यह ज़ाहिर होता है कि इस क़ानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जा रहा है। गोगोई और उनके साथियों को इस क़ानून के तहत लगाए गए आरोपों से मुक्त करना इसी सिलसिले की कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।
हालाँकि विशेष अदालत ने न तो हाईकोर्ट के फ़ैसले का ज़िक्र किया है और न ही यूएपीए के दुरुपयोग को लेकर कोई टीका-टिप्पणी की है। गोगोई को फँसाने के लिए उसने बहुत ही फूहड़ क़िस्म के आरोप भी लगाए थे, जिनमें से एक यह था कि वे अपने साथियों को कॉमरेड बुलाते हैं।
एनआईए ने यूएपीए के तहत गोगोई पर आपराधिक षड्यंत्र रचने, देश के विरुद्ध युद्ध छेड़ने और धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता फैलाने के आरोप लगाए थे।
गोगोई को जानने वाले जानते थे कि ये तमाम आरोप निराधार हैं, फ़र्ज़ी हैं। उनकी गिरफ्तारी के बाद उनकी पार्टी के धैर्य कँवर, बिट्टू सोनोवाल, मानस कँवर आदि को भी गिरफ़्तार करके यूएपीए लगा दिया गया था। हालाँकि इन तीनों को पिछले साल छोड़ दिया गया था।
दरअसल, उस समय बीजेपी सरकार का एक ही मक़सद था। उसे सीएए विरोधी आंदोलन को कुचलना था, इसलिए उसने उसके सबसे बड़े चेहरे को ही जेल में ठूँस दिया। एनआईए ने गोगोई और उनके साथियों पर यूएपीए के तहत मामले दर्ज़ किए, ताकि उनकी ज़मानत भी न हो पाए। गोगोई को कहीं से राहत नहीं मिली। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से भी नहीं।
गोगोई को गिरफ़्तार करके बीजेपी अपने मक़सद में कामयाब भी रही। सीएए आंदोलन धीरे-धीरे ख़त्म हो गया और विधानसभा चुनाव में उससे उसे कोई भी नुक़सान नहीं पहुँचा। अगर उस आंदोलन में वही गरमी बरक़रार रहती तो वह यह चुनाव जीत ही नहीं पाती।
लेकिन ग़ौरतलब बात यह है कि बीजेपी सरकार की तमाम तिकड़मों के बावजूद जनता के दिलों में गोगोई के लिए जगह कम नहीं हुई थी, इसलिए उसने उनके जेल में रहते हुए भी उन्हें शिवसागर सीट से जिता दिया। असम के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ। एनआईए की विशेष अनुमति के बाद गोगोई ने विधायक के रूप में शपथ भी ली लेकिन उन्हें जेल से छोड़ा नहीं गया, क्योंकि उन पर कई केस लादे गए हैं।
चाबुआ वाले मामले में आरोपमुक्त होने के बावजूद अभी वे जेल में ही रहेंगे, क्योंकि यूएपीए का एक और मामला बाक़ी है। वह मामला भी टिकेगा नहीं, मगर तय है कि एनआईए कोई कोर कसर बाक़ी नहीं रखेगी।
वह जानती है कि गोगोई अगर मुक्त हुए तो सरकार की मुसीबतें फिर शुरू हो जाएँगी। गोगोई डरने वाले शख़्स नहीं हैं, वे फिर आंदोलन छेड़ देंगे।
अखिल गोगोई ने चुनाव पूर्व मीडिया को बताया था कि पुलिस और एनआईए ने उन्हें किस तरह से प्रताड़ित किया है। हिरासत में गोगोई का स्वास्थ्य भी बिगड़ गया था। उनकी माँ और असम के नागरिकों की अपीलों को खारिज़ करते हुए सरकार ने उनकी ज़मानत नहीं होने दी थी।
चुनाव के दौरान गोगोई की अनुपस्थिति में उनकी पार्टी के नेताओं ने प्रचार की कमान सँभाल ली थी। गोगोई की माँ भी पूरी तरह से सक्रिय हो गई थीं। इसका नतीजा थी उनकी जीत। अगर गोगोई जेल से बाहर होते तो शायद अपने राइजोर दल के कुछ और उम्मीदवारों को भी जिता ले जाते, मगर ऐसा हो न सका।
असम सरकार की बदनीयती का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने उन्हें मानसिक रूप से अस्थिर यानी पागल बता दिया था। दरअसल, वे चाहते ही नहीं हैं कि गोगोई बाहर आएँ।
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