बस्तर में माओवादियों से लड़ते हुए जवानों की शहादत पर सवाल उठाने की वजह से असमिया लेखिका शिखा सर्मा को गिरफ़्तार कर लिया गया है। उन पर राजद्रोह का मामला लगाया गया है।
गुवाहाटी पुलिस आयुक्त मुन्ना प्रसाद गुप्ता ने इसकी पुष्टि की है।
मामला क्या है?
शिखा सर्मा ने अपने फ़ेसबुक पेज पर कथित तौर पर लिखा है, "वेतनभोगी पेशेवर जो अपनी ड्यूटी निभाते हुए मारे जाते हैं, उन्हें शहीद नहीं कहा जा सकता है। इस तर्क के आधार पर बिजली का झटका लगने से मरने वाले बिजली विभाग के कर्मचारी को भी शहीद कहा जाना चाहिए।"
इस पोस्ट पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है। गुवाहाटी हाई कोर्ट की वकील उमी डेका बरुआ और कंकना गोस्वामी ने दिसपुर थाने में शिखा सर्मा के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई है।
एफ़आईआर
इसमें कहा गया है, "यह हमारे सैनिकों का अपमान है। इस तरह की टिप्पणियों से हमारे जवानों की शहादत को घटा कर पैसे कमाने की बहस में तब्दील कर दिया जाता है। यह देश की सेवा करने वालों की भावना और प्रतिष्ठा पर मौखिक हमला भी है"
दिसपुर के थाना प्रभारी प्रफुल्ल कुमार दास ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, "इस एफ़आईआर के आधार पर ही मामला दर्ज किया गया और गिरफ़्तारी हुई है।"
लेकिन शिखा सर्मा के फ़ेसबुक पेज पर यह टिप्पणी फिलहाल नहीं है।
शिखा सर्मा इसके पहले भी चर्चा में रह चुकी हैं। सरकार की आलोचना के लिए उन्हें अक्टूबर में बलात्कार की धमकी दी गई थी।
शिखा सर्मा का पलटवार
ऑनलाइन पर तेज़ हमला होने के बाद शिखा सर्मा ने जवाब दिया है। उन्होंने कहा है, "क्या मेरे पोस्ट को गलत ढंग से पेश करना मेरा मानसिक उत्पीड़न नहीं है। क्या मेरे ख़िलाफ़ चलाया जा रहा यह झूठा दुष्प्रचार किसी क़ानून के तहत आता है? जब मुझे हत्या की धमकी दी गई थी और डराया-धमकाया गया था तो मामला क्यों नहीं दर्ज किया गया था?"
सरकारी रिकॉर्ड में 'शहीद' शब्द नहीं
बता दें कि सरकारी रिकॉर्ड में शहीद शब्द नहीं है और किसी को आधिकारिक तौर पर शहीद नहीं माना जाता है, न ही उनके लिए कोई ख़ास व्यवस्था होती है। जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी को हुए आतंकवादी हमले के बाद यह बात सामने आई थी।
सरकार का ही साफ़ तौर पर कहना है कि इसके रिकॉर्ड में ‘मार्टर’ या ‘शहीद’ नाम का कोई शब्द नहीं है। सरकार की यह सफ़ाई तब आई जब सीआरपीएफ़ जैसे अर्धसैनिक बलों में जान गँवाने वाले जवानों को शहीद का दर्जा देने की माँग की गयी।
साल 2017 में केंद्रीय सूचना आयोग को अपने जवाब में रक्षा और गृह मंत्रालय ने साफ़ तौर पर कहा था कि ‘मार्टर’ या ‘शहीद’ शब्द न तो सेना में और न ही अर्धसैनिक बलों या पुलिस में जान गँवाने वाले जवानों के लिए किया जाता है।
क्या कहना है सरकार का?
दोनों मंत्रालयों ने कहा कि इसके लिए ‘बैटल कैजुअल्टी’ या ‘ऑपरेशन कैजुअल्टी’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘बैटल कैजुअल्टी’ का शाब्दिक अर्थ ‘हमले में हताहत’ और ‘ऑपरेशन कैजुअल्टी’ का मतलब ‘अभियान में हताहत’ जैसा हो सकता है।
इतना ही नहीं, अर्धसैनिक बलों के जान गँवाने वाले जवानों को शहीद का दर्जा दिये जाने की माँग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट में रक्षा और दूसरे मंत्रालयों ने भी कहा था कि शहीद शब्द इस्तेमाल में ही नहीं है।
रक्षा और गृह मंत्रालय ने कोर्ट में शपथ-पत्र देकर कहा था कि थलसेना, वायुसेना और नौसेना में 'शहीद' का प्रयोग नहीं किया जाता है। दोनों मंत्रालयों ने यह भी साफ़ किया था कि ऐसी कोई अधिसूचना भी जारी नहीं की गयी है।
इस विवाद से यह सवाल भी उठता है कि जिस समय केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान नक्सली हमले में मारे गए, देश के राजनेता क्या कर रहे थे।
यह हमला ऐसे समय में हुआ जब देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री चुनावी सियासत में व्यस्त थे। नक्सलियों ने यह समय चुना है तो यह स्वाभाविक तौर पर उसकी रणनीति है। मगर, इस रणनीति के जवाब में जो त्वरित प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी क्या वह सामने आयी? या वह चुनावी सियासत की भेंट चढ़ गयी? ऐसे में शहीद शब्द पर बवाल का क्या अर्थ है?
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