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स्वामी विवेकानंद

मोदी के 'ध्यान' में स्वामी विवेकानंद कहां हैं?

“हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन सेनिकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।”

(झाड़ग्राम में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का भाषण, 12 मई 1940  (स्रोत: 14 मई को आनंद बाजार पत्रिका में छपी रिपोर्ट)
वैसे तो आदर्श आचार संहिता भी वोटों को पाने के लिए धार्मिक आस्था के दोहन को प्रतिबंधित करती है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी प्रचार की समय सीमा ख़त्म होते ही कन्याकुमारी के ‘विवेकानंद रॉक मेमोरियल’ पहुँच गये। यह वही जगह है जहाँ 1892 में स्वामी विवेकानंद ने ध्यान लगाया था। लेकिन सातवें चरण का मतदान शुरू होने के एक दिन पहले शुरू हुआ मोदी जी का 45 घंटे का ध्यान, किसी और ही मक़सद सेथा। ध्यान मंडपम् में चहुँदिस स्थापित कैमरों और बैकग्राउंड में ओम के सतत् उच्चार के बीच भगवाधारी संन्यासी भेष में बैठे मोदी जी की ‘ध्यानमुद्रा’ मुख्यधारा न्यूज़ चैनलों के पर्दे पर ‘लाइव’ होकर जनता का ध्यान खींचने लगी। 
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यह प्रधानमंत्री के साथ-साथ देश के आध्यात्मिक नेता बतौर भी मोदी जी की छवि घर-घर पहुँचाने का तरीक़ा था।यह उसी रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत हर चरण के मतदान के दिन मोदी जी की कहीं दूर हो रही रैली का टीवी चैनलों पर सीधा प्रसारण किया जाता है। प्रचार की समय सीमा ख़त्म होने के बाद भी प्रचार करने का यह अनैतिक तरीक़ा चुनाव आयोग एक क्षण में रोक सकता था, लेकिन उसने चूँ भी नहीं बोला। सुप्रीम कोर्ट की सलाह दरकिनार करके चुनाव आयुक्त की चयन समिति को ‘सरकारी समिति’ बना देने का नतीजा साफ़ दिख रहा है। 
बहरहाल, नेताजी सुभाष की नसीहत से उलट भगवा संन्यासी बनकर वोट माँगने के क्रम में मोदी जी ने जिन स्वामी विवेकानंद का सहारा लिया है, क्या उनकी शिक्षाएँ भी उस राजनीति की इजाज़त देती हैं जिस पर मोदी जी के नेतृत्व में बीजेपी सरपट भागरही है? ध्यान से देखने पर इसका जवाब ‘न’ में मिलता है। मोदी जी ने पूरे चुनाव के दौरान जिस तरह से ‘मछली’ से लेकर ‘मुग़ल’ तक को मुद्दा बनाते हुए मुसलमानों को निशाना बनाया, स्वामी विवेकानंद उसकी कभी इजाज़त नहीं दे सकते थे।
याद कीजिए, आरजे़डी नेता तेजस्वी यादव की मछली के साथ दिखी एक तस्वीर को मोदी जी ने किस तरह हिंदू आस्था पर चोट बताया था। उन्होंने इसे ‘सावन का पाप’ बतौर पेश किया था लेकिन हक़ीक़त ये है कि स्वामी विवेकानंद ही नहीं उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस भी मांस-मछली बड़े चाव से खाते थे। स्वामी विवेकानंद तो मछली-मटन पकाने की कला में भी पारंगत थे। एक ‘संन्यासी होकर मांसाहार करने’ से जुड़ी निंदा के जवाब में स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “मुझसे बार-बार यह प्रश्न किया जाता है कि मैं मांस खाना छोड़ दूँ! मेरे गुरुदेव ने कहा था- कोई चीज़ छोड़ने का प्रयास तुम क्यों करते हो? वही तुम्हें छोड़ देगी। प्रकृति का कोई पदार्थ त्याज्य नहीं हैं“। (विवेकानंद साहित्य, भाग-4, पेज-165)
आरएसएस और बीजेपी से जुड़े संगठन और नेता अक्सर मुग़ल शासकों को धर्मांतरण का दोषी बताते हुए कोसते नज़र आते हैं। स्वयं मोदी जी के भाषण में मुग़ल शब्द एक निंदनीय भंगिमा के साथ आता रहा है लेकिन विवेकानंद कहते हैं- ''भारत में मुस्लिम विजय ने शोषित, दमित और गरीब लोगों को आज़ादी का स्वाद चखाया और इसीलिए देश की आबादी का पाँचवाँ हिस्सा मुसलमान हो गया। यह सोचना पागलपन के सिवाय कुछ नहीं है कि तलवार और जोर-जबर्दस्ती के ज़रिए हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ। सच तो यह है कि जिन लोगों ने इस्लाम अपनाया वे जमींदारों और पुरोहितों के शिकंजे से आज़ाद होना चाहते थे। बंगाल के किसानों में हिंदुओं से ज्यादा मुसलमानों की तादाद इसलिए है कि बंगाल में बहुत ज्यादा जमींदार थे।’’(सेलेक्टड वर्क्स ऑफ़ स्वामी विवेकानंद, तृतीय खंड, पेज 294)
मोदी जी ने पिछले दिनों तमिलनाडु के द्रविड़ नेताओं की ओर से ‘सनातन धर्म' पर उठाये गये सवालों पर जैसी तीखी प्रतिक्रिया जतायी थी उसे भूला नहीं जा सकता। उन्होंने इसे हिंदू आस्था पर हमला बताते हुए कहा था कि किसी और धर्म (?) पर ऐसी टिप्पणियों से जान पर बन आती! लेकिन विवेकानंद की टिप्पणियाँ भी इस संदर्भ में कम मारक नहीं हैं। अपने प्रसिद्ध व्याख्यान 'कास्ट, कल्चर एंड सोशलिज्म’ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं- ''सैकड़ों वर्षों तक अपने सिर पर गहरे अंधविश्वास का बोझ रखकर, केवल इस बात पर चर्चा में अपनी ताकत लगाकर कि किस भोजन को छूना चाहिए और किसको नहीं, और युगों तक सामाजिक जुल्मों के तले सारी इंसानियत को कुचलकर आपने क्या हासिल किया और आज आप क्या हैं? स्वामी विवेकानंद आगे कहते हैं-

आओ पहले मनुष्य बनो और उन पंडे पुजारियों को निकाल बाहर करो जो हमेशा आपकी प्रगति के खिलाफ रहे हैं, जो कभी अपने को सुधार नहीं सकते और जिनका ह्रदय कभी भी विशाल नहीं बन सकता। वे सदियों के अंधविश्वास और जुल्मों की उपज है। इसलिए पहले पुजारी-प्रपंच का नाश करो, अपने संकीर्ण संस्कारों की कारा तोड़ो, मनुष्य बनो और बाहर की ओर झाँको। देखो कि कैसे दूसरे राष्ट्र आगे बढ़ रहे हैं।


-स्वामी विवेकानंद, कास्ट, कल्चर एंड सोशलिज्म

विवेकानंद के इस तेवर को देखते हुए समझा जा सकता है कि अपने तप, जप, अनुष्ठान आदि के टीवी पर सीधे प्रसारण की व्यवस्था करने वाले ‘सेंगोलधारी’ मोदी, स्वामी विवेकानंद के रास्ते से कितने दूर हैं। यही नहीं, लोकसभा चुनाव के सातों चरणों में जिस तरह मोदी जी और उनकी पार्टी के नेताओं ने सांप्रदायिक विभाजन कीकोशिश की, वह भी स्वामी विवेकानंद से उन्हें बहुत दूर ले जाता है। 11 सितंबर1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने 'गर्व से कहो मैं हिंदू हूँ’ का घोष नहीं किया था जैसा कि उनकी तस्वीर के साथ दर्ज करके जगह-जगह चिपकाने का रिवाज है, उलटा उन्होंने कहा था-  

मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।


- स्वामी विवेकानंद, विश्व धर्म संसद, शिकागो, 11 सितंबर 1893

ध्यान दीजिए, स्वामी विवेकानंद सिर्फ़ हिंदू धर्म को नहीं, सभी धर्म को सत्य के मार्ग के रूप में स्वीकारने की बात कर रहे हैं। यानी इसमें इस्लाम और ईसाई भी शामिल हैं जो आरएसएस के जन्म से उसके निशाने पर हैं।
शिकागो के इसी भाषण में धार्मिक कट्टरता को निशाने पर लेते हुए स्वामी विवेकानंदने कहा था, “ सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी हैं। न जाने कितनी सभ्याताएं तबाह हुईं और कितने देश मिटा दिये गये। यदि ये ख़ौफ़नाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज़्यादा बेहतर होता, जितना कि अभी है। लेकिन उनका वक़्त अब पूरा हो चुका है। मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा. चाहे वह तलवार से हो याफिर क़लम से।”
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मोदी जी के तमाम चुनावी भाषण बताते हैं कि महान योद्धा संन्यासी विवेकानंद केचिंताओं और चिंतन से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। विवेकानंद जैसी धज बनाकर वे कन्याकुमारी गये ज़रूर हैं लेकिन उनके ‘ध्यान’ में विवेकानंद और उनकी शिक्षाएँ नहीं, चुनावी गुणा-गणित के ज़रिए तीसरी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करना भर है! नेताजी सुभाष की मानें तो “सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि वे इसकी निंदा करें!”
(वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
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