विभागीय रोस्टर लागू होने और साल दर साल रोस्टर चलाने पर रोक के बाद विश्वविद्यालयों में एससी, एसटी, ओबीसी का प्रवेश क़रीब असंभव हो जाएगा और भविष्य में भी कभी प्रवेश मिलने की संभावना ख़त्म कर दी गई है।
यूजीसी ने बनाई काले समिति
वंचित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिए दिसंबर 2005 में कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को एक पत्र भेजकर आरक्षण लागू करने में आ रही विसंगतियों को दूर करने को कहा था। यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन प्रोफेसर वी. एन. राजशेखरन पिल्लई ने इसके लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रावसाहब काले की अध्यक्षता में 3 सदस्यों वाली समिति बनाई, जिसमें क़ानून के जानकार प्रोफ़ेसर जोस वर्गीज और यूजीसी के तत्कालीन सचिव डॉ. आर. के. चौहान शामिल थे।
200 प्वाइंट का रोस्टर बनाया
आरक्षण व्यवस्था में 7.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति, 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 27 प्रतिशत अन्य पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए पद आरक्षित किए गए हैं। इसे ध्यान में रखते हुए काले समिति ने 50 या 100 प्वाइंट का रोस्टर न बनाकर 200 प्वाइंट का रोस्टर बनाया। इसकी वजह यह थी कि अगर 100 प्वाइंट का रोस्टर बनाया जाए तो अनुसूचित जनजाति को 7.5 पद देने होते और आधे पद का सृजन नहीं हो सकता था।
200 प्वाइंट रोस्टर में पद इस तरह से आरक्षित किए गए थे।
- अनारक्षित : 01, 02, 03, 05, 06, 09वाँ ... के क्रम में 200 तक के वे पद जो ओबीसी, एससी, एसटी में शामिल नहीं हैं।
- ओबीसी : 04, 08, 12, 16, 19, 23, 26, 30, 34, 38… 200वाँ पद।
- एससी : 7, 15, 20, 27, 35, ......... 199वाँ पद।
- एसटी : 14, 28, 40, ....... 198 वाँ पद।
आर. के. सब्बरवाल और अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के मुताबिक़, यूजीसी ने विश्वविद्यालयों को भेजे अपने दिशा-निर्देश मे क्लॉज 8 (ए) (वी) का प्रावधान किया। 5 जजों की संविधान पीठ ने कहा था कि रोस्टर साल दर साल चलता रहेगा।
इसे ऐसे समझें। अगर किसी विश्वविद्यालय ने 2005 से आरक्षण देना शुरू किया है और उसने किसी भी तरीक़े से आरक्षण लगाकर 2008 तक सिर्फ़ 30 सवर्णों की भर्ती कर ली है और आरक्षित तबके़ का एक भी अभ्यर्थी नहीं रखा है तो 2008 के बाद जो भी पद निकलेंगे, उनमें पहले ओबीसी के 04, 08, 12, 16, 19, 23, 26, 30 वें पद और एससी के 7, 15, 20, 27वें पद और एसटी के 14, 28 वें पद की भर्ती करने के लिए वैकेंसी निकालनी होगी।
डीयू ने नहीं माना रोस्टर
दिल्ली विश्वविद्यालय में 200 प्वाइंट रोस्टर का तीखा विरोध हुआ। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधार्थी अरविंद कुमार बताते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय अपना 13 अंक का रोस्टर चलाता था और उसने नया नियम मानने से ही इनकार कर दिया। यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन (2006-11) प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने जब अनुदान रोक देने की धमकी दी तब विश्वविद्यालय ने नियम माना और प्रोफेसर काले के रोस्टर को लागू किया गया।
विश्वविद्यालय में दशकों से कब्जा जमाए बैठे लोग कहाँ मानने वाले थे? यूजीसी की सख़्ती के बाद विश्वविद्यालयों ने नई रिक्तियाँ निकालना बंद कर दिया। सिर्फ़ एकल पद, विशिष्ट योग्यता वाले पद निकाले गए, जिन पर न्यायालयों के कई फ़ैसलों के मुताबिक़ आरक्षण लागू ही नहीं होता।
क्लॉज 8 (ए) (वी) को किया रद्द
आख़िरकार यह मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि अगर विश्वविद्यालय को हर स्तर की टीचिंग की यूनिट के रूप में मानकर रोस्टर लागू किया जाए तो इसकी वजह से कुछ विभागों व विषयों में आरक्षित श्रेणी के सभी उम्मीदवार आ जाएँगे और कुछ विभागों में सिर्फ़ अनारक्षित वर्ग के उम्मीदवार होंगे। इस तरह से यह संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 16 का उल्लंघन है। यह तर्क देते हुए न्यायालय ने यूजीसी द्वारा तैयार किए गए दिशा-निर्देश के क्लॉज 6 (सी) और 8 (ए) (वी) को रद्द कर दिया।
क्लॉज 8 (ए) (वी) खारिज होने से एससी, एसटी, ओबीसी को भविष्य में आने वाली भर्तियों में रोटेशन के मुताबिक़ पद मिलने की आस ख़त्म हो गई।
क्लॉज 6 (सी) ख़त्म होने पर विश्वविद्यालय को यूनिट मानकर आरक्षण देने का प्रावधान खत्म हो गया और विभागवार आरक्षण देने की व्यवस्था हो गई।
ऐसा लगता है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 7 अप्रैल, 2017 के इस फ़ैसले से सबसे ज़्यादा खुशी केंद्र सरकार को मिली। यूजीसी ने आनन-फानन में इस फ़ैसले और विभिन्न न्यायालयों के 10 फ़ैसलों का अध्ययन किया और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के मुताबिक़ नए दिशा-निर्देश जारी कर दिए।
एक महीने तक इस बारे में कोई ख़बर नहीं आई। इंडियन एक्सप्रेस ने 23 अक्टूबर, 2017 को जब यह ख़बर प्रकाशित की, तो थोड़ा हंगामा हुआ। लेकिन असल हंगामा तब हुआ जब विश्वविद्यालयों से लेकर डिग्री कॉलेजों, इंजीनियरिंग कॉलेजों में रिक्तियाँ आने लगीं और नई व्यवस्था से एससी, एसटी और ओबीसी के लिए इक्का-दुक्का पद बचते थे।
आने लगी रोकी गईं भर्तियाँ
विश्वविद्यालयों ने जो भर्तियाँ पिछले 10 साल से रोक रखी थीं, वह जबरदस्त तरीके़ से आने लगीं। ऐसे में कुछ विभागों में 14 तक भर्तियाँ आ गईं, जिसमें 2 पद ओबीसी और 1-1 पद एससी-एसटी को मिल जाते। लेकिन ज़्यादातर मामलों में विभाग में 3 रिक्तियां आईं और किसी भी तरीके से एससी, एसटी व ओबीसी के लिए कोई जगह नहीं बन पाई। यह सूचनाएँ अखबारों में तो कम आईं, लेकिन सोशल मीडिया पर छा गईं।
जोरदार विरोध
मामला देश की सबसे बड़ी जन अदालत लोकसभा और राज्यसभा तक पहुँच गया। 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत की आँधी में बच गए छोटे से विपक्ष और उसमें भी इक्का-दुक्का जीते ओबीसी और दलित विपक्षी सांसदों ने अपनी पूरी ताक़त से हंगामा किया और सरकार की इस नई व्यवस्था का विरोध किया। सरकार ने भी इस पर घड़ियाली आँसू बहाए।
भर्तियों पर रोक
केंद्र सरकार के 2-3 मंत्रियों ने माना कि नया नियम एससी, एसटी, ओबीसी पर अत्याचार है, उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन है। सरकार ने इस मामले में उच्चतम न्यायालय में अपील करने की बात कही और मानव संसाधन विकास मंत्री ने उच्चतम न्यायालय का फ़ैसला आने तक भर्तियों पर रोक लगा दी। ध्यान रहे कि सरकार ने यूजीसी के नए दिशा-निर्देशों को वापस नहीं लिया, सरकार की यह भी एक कुटिलता थी।
सुप्रीम कोर्ट ने बरक़रार रखा फ़ैसला
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अप्रैल, 2018 में उच्चतम न्यायालय में स्पेशल लीव पिटीशन (एसएलपी) दायर की। 22 जनवरी, 2019 को उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति यू. यू. ललित और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने इस एसएलपी को सुनवाई के काबिल ही नहीं समझा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 7 अप्रैल, 2017 के फ़ैसले को बरक़रार रखा।
क्या आरक्षण विरोधी रही मंशा?
पिछले 20 साल से उत्तर प्रदेश की लोवर जुडीशियरी में काम कर रहे एक जज ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले को विस्तार से पढ़ा है। उन्होंने कहा कि यह लंबा-चौड़ा फ़ैसला लिखे जाते समय न्यायालय के पहले के फ़ैसलों के उन सभी तर्कों को कॉपी-पेस्ट कर दिया गया है, जो आरक्षण लागू किए जाने के ख़िलाफ़ दिए गए हैं।
उनके मुताबिक़, फ़ैसला पढ़कर दुनिया का कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति कह सकता है कि न्यायाधीशों की मंशा ही आरक्षण के ख़िलाफ़ थी। हालाँकि यह पूछे जाने पर कि न्यायाधीशों ने जातीय कुंठा या वंचित तबके के प्रति दुर्भावना में यह फ़ैसला लिखा है, उन्होंने कहा कि यह मेरे कहे की व्याख्या जैसी ही है और आप ऐसी व्याख्या करने के लिए स्वतंत्र हैं।
नौकरियाँ मिलने का दरवाजा बंद
इस तरह से देखें तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले, जिसे 22 जनवरी, 2019 को उच्चतम न्यायालय ने बरक़रार रखा है, इसने अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण के माध्यम से नौकरियाँ मिलने का दरवाजा बंद कर दिया है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले में 200 प्वाइंट रोस्टर या 13 प्वाइंट रोस्टर के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है, लेकिन क्लॉज 6 (सी) ख़त्म होने पर विश्वविद्यालय स्तर पर रोस्टर न लागू कर विभागवार रोस्टर का प्रावधान कर दिया गया है।
किसी भी विभाग में कभी इतनी नियुक्तियाँ आ ही नहीं सकतीं कि एसटी कोटे तक नियुक्ति का मामला पहुँचे। अगर एक विभाग में एक साथ 15 भर्तियाँ निकलती हैं, तभी उसमें से एक सीट मिलने की संभावना बनती है। क्लॉज 8 (ए) (वी) खारिज होने से भविष्य में आने वाली भर्तियाँ या यूँ कहें कि बैकलॉग भरने की संभावना भी ख़त्म हो गई है।
ओबीसी आरक्षण भी नहीं मिला
इंडियन एक्सप्रेस के श्यामलाल यादव ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के माध्यम से डीओपीटी, यूजीसी और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से आँकड़े निकाले हैं। 16 जनवरी, 2019 को प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़, 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, जहाँ ओबीसी आरक्षण लागू है, ओबीसी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की संख्या उनके 27 प्रतिशत कोटे की क़रीब आधी 14.28 प्रतिशत है। वहीं, ओबीसी प्रोफ़ेसरों और एसोसिएट प्रोफ़ेसरों की संख्या शून्य है। आँकड़ों के मुताबिक़, 95.2 प्रतिशत प्रोफ़ेसर, 92.9 प्रतिशत एसोसिएट प्रोफ़ेसर और 66.27 प्रतिशत असिस्टेंट प्रोफ़ेसर सामान्य श्रेणी के हैं।
वंचित तबक़े के लिए नहीं है सीट
आनन-फानन में राजस्थान विश्वविद्यालय ने 18 विभागों के लिए 32 भर्तियाँ निकालीं और हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय ने 53 भर्तियाँ निकालीं। इन 85 सीटों में से एक भी सीट एससी, एसटी या ओबीसी के लिए आरक्षित नहीं है। प्रोफ़ेसर काले कहते हैं, ‘अपर कास्ट के लोग हमेशा यह राह निकालने की कवायद में रहते हैं कि आरक्षण लागू न होने पाए।’
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