गाय बहुमत हिंदुओं के लिए (सवर्ण और पिछड़ी जातियों में) सदियों से बेहद संवेदनशील मसला रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जहाँ हिंदू मुस्लिम आबादी की हिस्सेदारी बेहद क़रीबी संख्या में है, यह एक विस्फोटक विषय है। दंगा करा कर उसकी राजनैतिक फ़सल काटने वाली राजनैतिक जमात इसके सफल प्रयोग पहले भी कर चुकी है। तमाम मीडिया रिपोर्ट इशारा कर रही हैं कि इस बार उनके पास यही सबसे अचूक हथियार है। योगी सरकार ने सत्ता में आते ही इसका एलान कर दिया था। अवैध बूचड़खानों को बंद करने का सवाल उठा कर उन्होने मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में पहले से मौजूद संदेह को बड़ी आवाज़ बनाने का प्रयास किया था। उसके परीक्षण का समय अब आ गया है। सबसे पहले मौक़े पर पहुँचे स्याना के तहसीलदार राजकुमार भाष्कर ने कहा, 'जिस तरह गोवंश के शरीर के टुकड़ों को गन्ने के खेतों में बाँध कर लटकाया गया था, वह शरारत ही थी, भोजन के लिए गोवध नहीं !' जिस गाँव के खेतों में यह किया गया, वह जाट-बहुल है और बग़ल के गाँवों में ठाकुरों की बहुलता है। जिन तीन गाँवों में यह सूचना या अफ़वाह सबसे पहले जंगल के आग की तरह फैली, उनमें दो जाटों के और एक ठाकुरों का गांव है।
बुलंदशहर वारदात के दौरान हुई हिंसा पहले की सांप्रदायिक हिंसक घटनाओं के पैटर्न के अनुरूप ही थी। सोशल मीडिया पर अफ़वाह, गुस्साई भीड़ का जमा होना, पुलिस पर पथराव और तोड़फोड़ पहले भी हो चुके हैं। सवाल लाज़िमी है कि इसके पीछ कौन था?
उत्तेजक बयान
बाद में स्याना के बीजेपी विधायक देविंदर लोधी ने भीड़ को जायज़ ठहराने वाला बयान देकर राजनैतिक निहितार्थ साफ़ कर दिया। दंगाइयों ने ख़ुद ही हिंसा के विडियो भी बनाए और तुरंत प्रसारित भी कर दिए।बिसाड़ा की अख़लाक़ हत्याकांड की घटना के बड़े स्वरूप के इस परीक्षण के राजनैतिक परिणाम तो बाद में मालूम होंगे पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की ज़बरदस्त कोशिशें परवान पर हैं। मीडिया में बैठे दंगाई पत्रकारों और संस्थानों ने अपना काम तुरंत शुरू कर दिया। सुदर्शन चैनल ने इसके लिए वारदात की जगह से क़रीब 40-45 किलोमीटर दूर चल रहे मुस्लिम धार्मिक आयोजन 'इज्तमा' को ज़िम्मेदार ठहरा दिया। लेकिन, विवाद पुलिस और स्थानीय हिंदुओं की गुस्साई भीड़ के बीच सीमित था। पुलिस ने मामले संभालने के लिए तुंरत इसका ट्विटर खंडन जारी किया ।
गोकशी प्रतिबंध
साल 1966 में जब इंदिरा गांधी पहली बार प्रधानमंत्री बनी थीं, तब देश में गोवध पर प्रतिबंध को लेकर एक बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा किया गया था। उस कारण उसी साल नवंबर में बेहद कुचर्चित गोलीकांड हुआ था और दर्जनों आंदोलनकारी मारे गए थे। बहुसंख्यक हिंदू समाज में गाय को लेकर संवेदनशीलता को तब से लगातार हवा दी जाती रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहाँ एक बड़ी मुस्लिम आबादी के बीच अवैध बूचडखानों की उपस्थिति रही, यह मुद्दा हमेशा ही बहस, अफ़वाह और क़ानूनी चुनौती बना रहा।
बुलंदशहर वारदात की साज़िश इस तरह समझी जा सकता है कि गायें काटने की अफ़वाह सत्ताधारी दल के एक नेता ने फैलाई और उनकी सरकार के नियंत्रण में काम कर रहा प्रशासन उसकी पुष्टि नहीं कर सका।
स्याना से 1989 में विधानसभा चुनाव लड़ चुके बी. एस. राना के अनुसार अफ़वाह यह है कि इजतमा में आए कई लाख मुसलमानों के भोजन के लिए आयोजकों ने दर्जनों आवारा गोवंश को रात के वक़्त ग़ैरक़ानूनी रूुप से काट डाला और उनके शरीर के अनुपयोगी टुकड़े खेतों में छोड़ दिए। पर प्रशासन इसकी किसी स्तर पर पुष्टि नहीं कर रहा जबकि इसके प्रमुख ख़ुद योगी आदित्यनाथ हैं। तब यह किसने किया? फ़िलहाल यह जाँच का विषय है, जिसके लिए एसआईटी गठित कर दी गई है।
मीडिया की भूमिका
फ़िलहाल दैनिक अख़बारों में बिना रेफरंस के इजतमा को लेकर ख़बरों की शुरुआत हो चुकी है। पश्चिम के सबसे ज्यादा प्रसारित अख़बार अमर उजाला में 'ख़ुफ़िया सूत्रों' के आधार पर दंगों के बड़े प्रयास की तैयारियों के बारे में अनुमान लगाया गया है। एक दूसरी ख़बर में बिना किसी रेफरेंस के इजतमा के आयोजकों के राजनैतिक मंत्रणा की काल्पनिक सूचनाएँ दी गई हैं।
आवारा पशुओं से फ़सलों को बचाने में असफल किसानों में जहाँ सरकार पर गुस्सा बढ़ता जा रहा था, सांप्रदायिक बँटवारा उसे कहीं और पहुँचा सकता है। लक्ष्य भी यही लगता है।
अपनी राय बतायें