बहुचर्चित राफेल लड़ाकू विमानों के सौदे का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आता दिख रहा है-राज को राज ही रहने देने की कोशिशों और उनसे जुडी ‘बुद्धिमत्तापूर्ण’ चुप्पियों के बावजूद-तो आइए, एक कल्पना करें। देश में कोई अन्य पार्टी या गठबंधन सरकार चला रहा होता, भारतीय जनता पार्टी {भाजपा} विपक्ष में होती और फ्रांसीसी इनवेस्टिगेटिव वेबसाइट ‘मीडिया पार्ट’ ने यही खुलासा किया होता तो क्या होता ? मीडिया पार्ट के अनुसार फ़्रांस के एक मजिस्ट्रेट ने एक आधिकारिक अनुरोध में राफेल विमानों की निर्माता कम्पनी द्वारा भारत से 2015-16 में किये गये 36 लड़ाकू विमानों के सौदे के हिस्से के तौर पर किये गये भुगतान की वहां चल रही जांच में भारत की सरकार से सहयोग मांगा है।
ज़ाहिर है अगर किसी और प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी फ्रांस यात्रा से ऐन पहले ऐसा हुआ होता तो यही भाजपा आज आसमान सिर पर उठाये घूम रही होती ? और मीडिया पुराना-‘लाख छुपाओ छुप न सकेगा राज हो कितना गहरा’-फिल्मी गाना ‘गुनगुनाते’ हुए सरकार को कठघरे में खड़ी करके जवाब मांग रहा होता या नहीं?
खुलासे के मुताबिक सम्बन्धित मजिस्ट्रेट उन दो भारतीय जांचों की केस फाइलों का अध्ययन करने में विशेष रुचि रखते हैं, जिनमें खुलासे के मुताबिक इस बात के विस्तृत सबूत हैं कि राफेल निर्माता कम्पनी ने उक्त सौदा पाने के लिए गुप्त रूप से भारत के सुषेन गुप्ता नाम के विचौलिए को कई मिलियन यूरो का भुगतान किया था। ज्ञातव्य है कि सुषेन गुप्ता वीवीआईपी हेलिकॉप्टर घोटाले में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की जा रही मनी लॉन्ड्रिंग की जांच का सामना कर रहे हैं और ‘मीडिया पार्ट’ 2021 में राफेल निर्माता कम्पनी से उनके गहरे कारोबारी संबंध उजागर कर चुका है।
अब मीडिया पार्ट ने रिलायंस समूह के अरबपति अनिल अंबानी को 2015 में फ्रांस से मिली टैक्स कटौती की बाबत यह खुलासा भी किया है कि कैसे उन्होंने फ्रांस के इकोनॉमी मंत्री (अब राष्ट्रपति) इमैनुएल मैक्रॉ और वित्तमंत्री मिशेल सैपिन को पत्र लिखकर 151 मिलियन यूरो का टैक्स बिल कम करने के लिए व्यक्तिगत हस्तक्षेप का अनुरोध किया था। खुलासे के अनुसार फ्रांस के कर प्रशासन द्वारा एकत्र गोपनीय दस्तावेजों में इस पत्र के सबूत मिले, जिनमें में कुछ को 36 राफेल लड़ाकू विमानों के उक्त सौदे में भ्रष्टाचार के आरोपों की फ्रांसीसी न्यायिक जांच में एकत्र सबूतों में जोड़ा गया है।
हम जानते हैं कि फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद 2018 में एक इंटरव्यू में कह चुके हैं कि अम्बानी की कम्पनी रिलायंस को मोदी सरकार के जोर देने के बाद राफेल सौदे में साझेदार के रूप में शामिल किया गया था। लेकिन तब राफेल निर्माता कम्पनी और रिलायंस दोनों ने उनके कथन को तथ्यों से परे बताया था और मोदी सरकार ने राफेल की निर्माता फ्रांसीसी कम्पनी के किसी भी ‘कारोबारी निर्णय’ में अपनी भूमिका से इनकार कर दिया था। उस वक्त भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच का आदेश देने के अनुरोध ठुकरा दिये थे, लेकिन फ्रांस में यह आपराधिक जांच का विषय है।
इसी जांच के सिलसिले में फ्रांस के मजिस्ट्रेट द्वारा किये गये सहयोग के आधिकारिक अनुरोध ने सौदे के मुश्किल से बोतल में बन्द किये गये जिन्न को फिर से बाहर निकाल दिया है। लेकिन ये पंक्तियां लिखने तक न मोदी सरकार ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की है, न किसी ओर से जोर देकर उससे इस बाबत पूछा ही जा रहा है। इसके अन्य कारण तो हैं ही, यह भी है कि इस सरकार ने अपने लगातार दो कार्यकालों में लाख पूछने पर भी कुछ न बताने की जो ‘परम्परा’ विकसित कर ली है, वह अब पूछने वालों को हताश करके उसका कवच बन गई है।
अन्यथा यही देश है जिसमें राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीकाल में 24 मार्च, 1986 को स्वीडन की हथियार बनाने वाली कम्पनी एबी बोफोर्स से पन्द्रह अरब अमेरिकी डॉलर का चार सौ होवित्जर फील्डगनों {बोफोर्स तोपों} की खरीद का सौदा हुआ और स्वीडन रेडियो ने उसमें बिचैलियों की मार्फत एक बड़े भारतीय नेता व सैन्य अधिकारियों को दलाली का भुगतान दिये जाने की पोल खोलने का दावा किया तो भूचाल-सा आ गया था। फिर तो कांग्रेस की सारी राजनीति दशकों तक इसकी बलि चढ़ती रही थी। कथित दलाली की रकम से कई गुना ज्यादा धन खर्च जांच में खर्च करने के बावजूद इस प्रकरण को किसी निर्णायक अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सका, फिर भी राजनीतिक हलकों में अभी भी उसकी अनुगूंज सुनाई पड़ जाती है।
लेकिन ‘मीडिया पार्ट’ के इस खुलासे की तो छोड़िये, 2021 में उसने अपने देश की भ्रष्टाचारनिरोधक ‘एजेंसे फ्रांकाइस ऐन्टीकरप्शन’ की जांच के हवाले से राफेल खरीद के फौरन बाद एक भारतीय बिचौलिये को दस लाख यूरो के भुगतान सम्बन्धी रिपोर्ट दी, तो भी न कोई भूचाल आया, नही मोदी सरकार ने खुद को घिरी हुई पाया। तब कमजोर विपक्ष और आत्मसमर्पण कर चुके मीडिया को इसका जिम्मेदार बताया गया और कई हलकों मे मीडिया पार्ट की रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाये गये।
दूसरी ओर मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के मनोनुकूल फैसले के हवाले से बार-बार दोहराती रही कि सौदा पूरी तरह ‘क्लीन’ है और उसे लेकर उठाये जा रहे सवालों के पीछे सेना का मनोबल घटाने की साजिश है।
लेकिन ज्यादा स्पष्ट शब्दों में कहें तो इस सबकी जड़ में 2014 में हिन्दुत्व के जयघोष और उसके ‘इमोशनल अत्याचारों’ के साये में देश की राजनीति का कम से कम इस अर्थ में फासीवादी हो जाना है जिसमें सारे तर्क व नैतिकताएं दरकिनार कर दी गई हैं। उन्मूलन की डपोरशंखी सरकारी घोषणाओं की बहुतायत के बीच भ्रष्टाचार भी पहले जितना निन्दनीय या त्याज्य नहीं ही रह गया है। ऐसे में क्या आश्चर्य कि विपक्ष भी संख्याबल में बोफोर्स के वक्त से ज्यादा होने के बावजूद शक्तिशाली नहीं रह गया है। उसके पास कोई विश्वनाथ प्रताप सिंह भी नहीं ही है। अन्ना हजारे व अरविन्द केजरीवाल के भ्रष्टाचारविरोधी आन्दोलन व लोकपाल की मांग की पोल खुल चुकी है, सो अलग। अपने भ्रष्टाचार से जुड़े सवालों को बारम्बार नकारने, पूछने वालों के सामने अकड़ने और अपनी एजेंसियों की मार्फत विपक्ष को ही भ्रष्ट ठहराने की मोदी सरकार की सुविधा का राज यही है।
इसी सुविधा के चलते उसने जनता के एक हिस्से के दिलोदिमाग में यह धारणा बैठा दी है कि राफेल सौदे पर सवाल सेना का मनोबल घटाने वाले है जबकि यह सच नहीं है। क्योंकि कोई भी राफेल विमानों की गुणवत्ता पर सवाल नहीं उठा रहा। बोफोर्स तोप सौदे पर सवाल उठे तो भी उनकी गुणवत्ता पर नहीं उठे थे। इसीलिए कारगिल के संघर्ष में उनकी मार्फत पाकिस्तानी सेना के घुसपैठियों पर कहर बरपाने के बाद भारतीय सैनिक ‘राजीव गांधी जिन्दाबाद’ के नारे लगाया करते थे।
लेकिन क्या किया जाये कि मोदी सरकार इतना भी नहीं समझना चाहती कि सेना की छोड़ दें तो जब भी कोई सरकार नये तथ्यों की रौशनी में भी भ्रष्टाचार के आरोपों या खुलासों की दूध का दूध और पानी का पानी करने वाली जांच से बचने के फेर में पड़ती है, देशवासियों का मनोबल घटता ही घटता है। इसके उलट वह निष्पक्ष जांच करा दे और उसमें पाक-साफ निकले तो उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती ही है। लेकिन मोदी सरकार की यह नासमझी आगे बहुत दिनों तक शायद ही उसकी मददगार सिद्ध हो सके। इसलिए कि अब दुनिया न सिर्फ छोटी हो गई है बल्कि कोई भी रहस्य अपने उद्घाटन के लिए किसी देश की सीमाओं का मोहताज नहीं रह गया है।
यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वदेश में पत्रकारों के सवालों के जवाब देने से भले बच जाते हैं, अमेरिका में जवाब भी देते हैं और फंसते भी हैं। उनकी सरकार देश की आजादी को आंशिक और लोकतंत्र को लंगड़ा कर देती है तो यह और कहीं नहीं तो अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में तो अभिव्यक्त हो ही जाता है। इसी तरह राफेल सौदे को लेकर देश में सारे सवालों की अनसुनी कर दी गयी है तो वे उस फ्रांस में उठ रहे हैं, जिसकी कम्पनी सौदे की लाभार्थी है। वहां सौदे में भ्रष्टाचार की जांच भी हो रही है।
ऐसा ही रहा तो कौन कह सकता है कि सरकार इस देश को ‘लाख छुपाओ छुप न सकेगा’ गाने से बहुत दिनों तक रोके रख पायेगी?
अपनी राय बतायें