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मोदी ने बदला परिणाम, ख़ुद को बदले विपक्ष

बालाकोट की घटना ने मोदी को वह मौक़ा दे दिया जिसकी उन्हें तलाश थी। और पूरे चुनाव में वह कहते नहीं थके कि उन्होंने पाकिस्तान को घर में घुस कर मारा। सड़कों पर यह बात आम आदमी के मुँह से सुनना आम हो गया कि मोदी ने घर में घुस कर मारा। लोगों को लगा कि मोदी ही एक ऐसे नेता हैं जो पाकिस्तान को सबक सिखा सकते हैं।
आशुतोष
सस्पेंस ख़त्म हो गया। मोदी प्रचंड बहुमत से जीत गये। शायद यह कोई सस्पेंस था ही नहीं। राजनीतिक पंडित बुरी तरह से हवा को पकड़ने में नाकामयाब रहे। यही है मोदी की कामयाबी का राज। वह हवा के विपरीत चलने का माद्दा रखते हैं। परंपरा को दरकिनार कर देते हैं। तमाम विवादों और विरोधों के बावजूद अपने रास्ते से डिगते नहीं हैं।
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2018 में दिसंबर के महीने में जब बीजेपी तीन हिंदी प्रदेशों में चुनाव हार गयी थी तब कहा जा रहा था कि मोदी तो गये। अर्थव्यवस्था की हालत ख़स्ता थी। विपक्ष ख़ासतौर से कांग्रेस के पैरों में लंबे समय के बाद नई थिरकन दिखी थी। पर मोदी ने धैर्य नहीं खोया और जैसा उनके बारे में मशहूर है कि वह विमर्श बदलने में माहिर हैं, सो उन्होंने फ़ौरन विमर्श बदलने का काम किया। सरकार के कामों की जगह “राष्ट्रवाद” को आगे कर दिया।
बालाकोट की घटना ने मोदी को वह मौक़ा दे दिया जिसकी उन्हें तलाश थी। और पूरे चुनाव में वह कहते नहीं थके कि उन्होंने पाकिस्तान को घर में घुस कर मारा। सड़कों पर यह बात आम आदमी के मुँह से सुनना आम हो गया कि मोदी ने घर में घुस कर मारा।
लोगों को लगा कि मोदी ही एक ऐसे नेता हैं जो पाकिस्तान को सबक सिखा सकते हैं। देश के लोगों को लंबे समय के बाद पहली बार लगा कि देश एक मज़बूत नेता के हाथ में है। यह आक्रामक राष्ट्रवाद मोदी की जीत में बड़ा कारण लगता है। दूसरा, मोदी ने यह बात बहुत ज़ोर देकर कही, ‘मेरे अलावा दूसरा क़ौन मज़बूत नेता है जो पाकिस्तान को सबक सिखा सकता है।’ राहुल गाँधी सामने थे पर उन्होंने कभी भी अपने को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश नहीं किया। बाक़ी के जो नेता थे वह क्षेत्रीय थे। इनमें किसी में यह माद्दा नहीं दिखा कि वह देश को नेतृत्व दे सकते हैं।
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लेकिन सिर्फ़ इसी को जीत का असली कारण कहना अति सरलीकरण होगा। दरअसल, पिछले पाँच सालों में मोदी नाम का मिथक गढ़ा गया है। इंदिरा गाँधी के बाद वह अकेले नेता हैं जिनको मिथकीय दर्जा हासिल हुआ। मोदी के साथ दो और ‘एम’ ने मोदी को अपराजेय कर दिया। ये दो ‘एम’ हैं ‘मीडिया’ और ‘मशीन’। जी हाँ, कुछ लोग यह पढ़कर चौंक सकते हैं।

मीडिया में मोदी का महिमामंडन उनके प्रधानमंत्री बनने के साथ ही शुरू हो गया था। मोदी में कोई खोट नहीं। विपक्ष की मामूली बात पर भी ऐसी-तैसी और जमकर चीरफाड़ करने की नई परंपरा शुरू हुई। विशेष कर टीवी में। आज भी देश में एक बड़ा वर्ग है जो टीवी और अख़बार में दिखे और लिखे को ब्रह्मा की लकीर मानता है। 

मुझे याद आता है 2014 के पहले का समय, जब सुबह से शाम तक मनमोहन सिंह और कांग्रेस को जी भर कर कोसा जाता था। अगर रफ़ाल और आर्थिक मसलों पर बहस होती और सरकार की ग़लतियों के लिये मोदी को ज़िम्मेदार ठहराया जाता तो शायद मोदी का मिथकीय दर्जा नहीं बनता। यह मोदी के तरकश का सबसे बड़ा तीर है। फिर उनका जनता से सीधा संवाद, वोटरों की भाषा में बात करने की कला ने इस तीर को नयी धार दी।
टीवी और अख़बार के बाद सोशल मीडिया में लगातार एक ऐसा विमर्श पैदा किया गया जिसने मोदी को महामानव और राहुल को महामूर्ख साबित करने का काम किया। कांग्रेस और दूसरी पार्टियाँ देर से जागीं और वे सोशल मीडिया में बीजेपी का सामना करने में नाकाम रहीं।
सिर्फ़ मीडिया को ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा। मोदी ने पार्टी का सर्वसर्वा बनने के बाद जिस तरह से बीजेपी के संगठन को एक चुनावी मशीन में तब्दील किया, वह अविश्वनीय है। अटल-आडवाणी की अगुवाई में भी बीजेपी का संगठन था। वह मज़बूत भी था पर मोदी ने उसमें मारक क्षमता भरी और यह साफ़ कहा कि चुनाव में जीत ही सबकुछ है। यह किलर इंस्टिंक्ट संगठन में मोदी की मौलिक उपलब्धि है। मीडिया, सांगठनिक मशीन और मोदी की मिथकीयता ने चुनाव का नया व्याकरण गढ़ा है।

विपक्ष के लिए आसान नहीं रास्ता

विपक्षी पार्टियों के लिये आगे का रास्ता आसान नहीं होगा। उन्हें यह समझना होगा कि परंपरागत राजनीति के दिन गये। उन्हें अगर बीजेपी को हराना है, या बराबरी की टक्कर देनी है तो फिर नये सिरे से सोचना होगा। नया विमर्श तैयार करना होगा। विपक्षी पार्टियों को मोदी के समानांतर एक नया नैरेटिव खड़ा करना होगा। एक नया सपना बुनना होगा और लोगों को अपने सपने में हिस्सेदार बनाना होगा। यूपी के नतीजे मेरी बात को पुष्ट करते हैं। यूपी में मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों के बाद जातिवादी राजनीति को एक ऊर्जा मिली। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने पिछड़ों और दलितों को नयी उम्मीद दी। उन्हें लोकतंत्र में सत्ता में भागीदारी का रास्ता दिखाया। उन्हें सशक्त किया। यह राजनीति कुछ समय तो चली। सरकारें भी बनवाईं पर कुछ समय के बाद वह अपनी जाति की पार्टियाँ भर बन कर रह गयीं।
मुलायम यादवों के नेता रह गये और मायावती जाटवों की। जबकि उन्हें आगे बढ़ कर पिछड़ों और दलितों की दूसरी जातियों को जोड़ने का काम करना चाहिये था। मोदी की बीजेपी ने यह काम किया। पिछड़ों और दलितों की दूसरी उपेक्षित जातियों को अपने से मिलाने का काम किया। यह सोशल इंजीनियरिंग रंग लायी।
तो क्या यह कहा जाए कि हिंदुत्व ने जातिवाद के बंधन को तोड़ दिया है? क्या पिछड़े और दलित पूरी तरह से हिंदुत्व के धागे में गुंथ गये हैं? अभी कोई फ़ैसला सुनाने से पहले थोड़ी और प्रतीक्षा करनी होगी। हाँ, यह ज़रूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने आज़ादी के बाद जो वैचारिक आधार देश को दिया था। इस चुनाव में इसकी मृत्यु हो गयी है।
अब देश की राजनीति के केंद्र में बीजेपी है। यह ‘स्थाईत्व’ कितना स्थायी होगा यह देखना होगा। फ़िलहाल उसको हटाने का दम विपक्ष में अभी नहीं है। लिहाज़ा, विपक्ष अपने को पूरी तरह से बदले। और अगर वे नहीं बदलते हैं तो फिर लंबे समय तक कोल्ड स्टोरेज में रहने के लिये अभिशप्त होंगे।  
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