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लाडकी बहिन योजना: मुफ्त के वादे- सच या चुनावी जुमला?

भारतीय राजनीति में फ्रीबीज यानी मुफ्त की रेवड़ियों का लालच दिखाकर मतदाताओं को लुभाने की परंपरा कोई नई नहीं है। लेकिन हाल के दिनों में यह सवाल तेजी से उठ रहा है कि क्या ये फ्रीबीज वादे सिर्फ चुनावी जुमले हैं, जो सत्ता हासिल करने के बाद हवा में गायब हो जाते हैं? महाराष्ट्र की चर्चित ‘लाडकी बहिन योजना’ इसकी ताज़ा मिसाल बनकर सामने आई है। इस योजना का बजट 2025-26 में 10 हज़ार करोड़ रुपये कम कर दिया गया, राशि बढ़ाने की बात तो दूर, लाभार्थियों के नाम तक काटे जा रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि वादों और हकीकत में इतना बड़ा फर्क दिख रहा है?

महाराष्ट्र में महायुति सरकार ने 2024 के विधानसभा चुनावों से पहले ‘मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिन योजना’ की शुरुआत की थी। इसका मक़सद आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये की सहायता देना था। चुनावी प्रचार में इसे और आकर्षक बनाते हुए सरकार ने वादा किया था कि राशि को बढ़ाकर 2100 रुपये किया जाएगा। इस योजना को लेकर क़रीब 200 करोड़ रुपये प्रचार पर ख़र्च किए गए, और इसे सरकार की बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश किया गया। नतीजों में महायुति की जीत में इस योजना की भूमिका को भी श्रेय दिया गया। लेकिन अब, जब वादों को पूरा करने की बारी आई, तो तस्वीर उलट गई।

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बजट में आवंटन 10 हज़ार करोड़ कम क्यों?

2025-26 के बजट में इस योजना के लिए आवंटन को 10 हज़ार करोड़ रुपये घटा दिया गया। न तो राशि बढ़ाने की कोई घोषणा हुई, बल्कि उल्टा लाभार्थियों की संख्या कम करने की प्रक्रिया शुरू हो गई। रिपोर्टों के मुताबिक़, पिछले कुछ महीनों में 9 लाख से ज़्यादा महिलाओं के नाम सूची से हटा दिए गए हैं, और आने वाले दिनों में और नाम काटे जाने की तैयारी है। विपक्षी दल इसे ‘चुनावी धोखा’ करार दे रहे हैं, जबकि सरकार का कहना है कि यह पात्रता मानदंडों को सख़्त करने का नतीजा है।

बढ़ाकर 2100 रुपये रक़म क्यों नहीं की?

योजना के बजट में कटौती और राशि न बढ़ाने के पीछे सरकार की ओर से आर्थिक मजबूरियों का हवाला दिया जा रहा है। महाराष्ट्र के वित्त मंत्री और उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने हाल ही में कहा कि राज्य की आर्थिक स्थिति को मज़बूत रखने के लिए कुछ योजनाओं में समायोजन ज़रूरी है। उनका तर्क है कि अगर 2.52 करोड़ पंजीकृत लाभार्थियों को 2100 रुपये प्रति माह दिए गए, तो सालाना खर्च 63 हज़ार करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा, जो राज्य के राजस्व के लिए भारी पड़ सकता है। लेकिन यह सवाल उठता है कि जब चुनावी वादा किया गया था, तो क्या उस वक़्त बजट का हिसाब नहीं लगाया गया था?

जानकारों का मानना है कि यह कटौती राज्य के बढ़ते राजकोषीय घाटे और कर्ज के बोझ का नतीजा है। पिछले कुछ सालों में मुफ्त बिजली, सब्सिडी, और नकद हस्तांतरण जैसी योजनाओं ने कई राज्यों के खजाने पर दबाव डाला है। पंजाब, मध्य प्रदेश, और कर्नाटक जैसे राज्य भी ऐसी योजनाओं के चलते वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं। 
दिल्ली में भी चुनाव से पहले हर महिला को 2500 रुपये देने का वादा किया गया था, लेकिन इस पर भी सवाल उठ रहे हैं। एक तो इतने दिनों बाद महिलाओं को नक़द पैसे नहीं मिले हैं और दूसरे उनके लिए कई शर्तें लगा दी गई हैं जिससे बड़ी संख्या में महिलाएँ योजना से बाहर हो गई हैं।
महाराष्ट्र में भी सरकार अब फ्रीबीज की इस होड़ को कम करने की कोशिश में दिख रही है। लेकिन सवाल यह है कि अगर आर्थिक स्थिति इतनी नाजुक थी, तो चुनाव से पहले बड़े-बड़े वादे क्यों किए गए?
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लाभार्थियों के नाम क्यों काटे जा रहे?

लाभार्थियों की संख्या में कटौती के पीछे सरकार का तर्क है कि योजना का लाभ सिर्फ़ पात्र महिलाओं तक पहुंचे। नए सत्यापन नियमों के तहत, जिन परिवारों की सालाना आय 2.5 लाख रुपये से ज़्यादा है, या जिनके पास चार पहिया वाहन (ट्रैक्टर को छोड़कर) हैं, उन्हें अयोग्य माना जा रहा है। पुणे जिले में हाल के सत्यापन में पता चला कि 75 हज़ार से ज़्यादा लाभार्थियों या उनके परिवारों के पास चार पहिया वाहन हैं, जिसके बाद उनके नाम हटाने की प्रक्रिया शुरू हुई।

विपक्षी कांग्रेस और शरद पवार के एनसीपी गुट का आरोप है कि यह कटौती जानबूझकर की जा रही है ताकि योजना का दायरा सीमित हो सके। कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने एक्स पर लिखा, ‘बीजेपी धोखा देने में सबसे आगे है। चुनाव से पहले लाडकी बहिन योजना का ढोल पीटा, अब 20 लाख नाम हटाने की तैयारी है।’ उनका कहना है कि यह गरीब महिलाओं के साथ विश्वासघात है।

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फ्रीबीज विवादों में क्यों?

फ्रीबीज का मुद्दा भारतीय राजनीति में हमेशा से विवादास्पद रहा है। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में मुफ्त टीवी, साइकिल, और नकद हस्तांतरण की योजनाएं शुरू हुईं, जो अब देशभर में फैल गई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 में इसे ‘रेवड़ी संस्कृति’ कहकर आलोचना की थी, लेकिन उनकी पार्टी भी उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में ऐसी योजनाओं से पीछे नहीं रही। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल में कहा था कि फ्रीबीज से लोग मेहनत करने के बजाय मुफ्तखोरी की ओर बढ़ रहे हैं, जो राष्ट्रीय विकास के लिए ख़तरा है।

महाराष्ट्र में लाडकी बहिन योजना की मौजूदा स्थिति इस बहस को और हवा दे रही है। अगर यह योजना वास्तव में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए थी, तो बजट में कटौती और नाम हटाने की प्रक्रिया इसके मकसद पर सवाल उठाती है। कहा तो यह भी जा रहा है कि बिना ठोस वित्तीय योजना के ऐसे वादे करना ही ग़लत था, और अब सरकार को उसे सुधारने की कोशिश करनी पड़ रही है।

लाडकी बहिन योजना में बजट कटौती, राशि न बढ़ाना, और लाभार्थियों के नाम काटना यह साफ़ करता है कि फ्रीबीज की राजनीति में वादे आसान होते हैं, लेकिन उन्हें पूरा करना मुश्किल।

मतदाताओं को लुभाने के लिए बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद आर्थिक हकीकत सामने आती है। यह स्थिति न केवल महाराष्ट्र की महिलाओं के लिए निराशाजनक है, बल्कि पूरे देश में फ्रीबीज की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है। क्या राजनीतिक दल अब भी मतदाताओं को धोखा देना जारी रखेंगे, या भविष्य में जिम्मेदार वादों की ओर बढ़ेंगे? 

(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)

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