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आतंकवादी गुट जैश-ए-मुहम्मद एक बार फिर सुर्खियों में है। इसने जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में फ़िदायीन हमले की ज़िम्मेदारी ली है। इसका संस्थापक और प्रमुख मसूद अज़हर है। वही मसूद अज़हर जिसे अटल बिहारी वाजयेपी की सरकार ने इंडियन एयरलाइन्स के अपहृत विमान के मुसाफ़िरों के बदले छोड़ दिया था और जिसे लेकर ख़ुद तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह कंधार गए थे।
अब इस आतंकी संगठन की करतूत के बाद फिर पूरे देश में दुःख है, गुस्सा है, क्षोभ है, प्रतिशोध की माँग है। प्रतिशोध की माँग यह भी है कि इस हमले को अंजाम देने वाले जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद अज़हर को वापस देश में लाकर सजा दी जाए। तो क्या मसूद अजहर को सजा देना इतना आसान है?
आइये, इसकी पूरी कहानी देखते हैं और फिर शहादतों, देशभक्ति, जुमलों, और सत्ता की बदनीयतियों के अंतर्संबंध भी समझते हैं।
मसूद अज़हर सोमालिया और ब्रिटेन में दहशतगर्दी फैलाने के बाद 1994 में कश्मीर में घुसा और कुछ दिनों में ही फ़रवरी 1994 में धर दबोचा गया। तब कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और देश में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी। उसे छुड़ाने की कोशिशें तुरंत शुरू हो गई थीं। ख़ुद को अल फ़रान बताने वाले एक नए नवेले आतंकवादी संगठन ने कश्मीर में 6 विदेशी पर्यटकों का अपहरण कर लिया था और बदले में मसूद की रिहाई की माँग की थी।
नरसिम्हा राव सरकार ने मसूद की रिहाई की बात नहीं मानी, और पर्यटकों को छुड़ाने की कोशिश करते रहे। उसके बाद क्या हुआ सब थोड़ा धुंधला है- एक पर्यटक भाग निकलने में सफल हो गया था। एक का मृत शरीर मिला और बाक़ी चार का कभी कुछ पता नहीं चला।मसूद अज़हर छूटा आख़िरकार 1999 में। 24 दिसंबर, 1999 को काठमांडू से उड़ी इंडियन एयरलाइन्स फ्लाइट आईसी 814 का भारतीय समयानुसार क़रीब 5 बजे के आसपास भारतीय वायु क्षेत्र में घुसते ही अपहरण कर लिया गया और ईंधन की कमी के कारण आतंकवादियों ने विमान को अमृतसर में उतारा। विमान 45 मिनट वहाँ खड़ा रहा और फिर भी उसे बाद में उड़ जाने दिया गया। क्यों उड़ जाने दिया गया, इसकी कहानी धीमे-धीमे छन कर आई।
अपहृत फ्लाइट में काठमांडू में ही भारतीय दूतावास में फ़र्स्ट सेक्रेटरी के पद पर तैनात रिसर्च एन्ड एनालिसिस विंग (रॉ) के अधिकारी शशि भूषण सिंह तोमर भी सवार थे। एक रॉ अधिकारी और किताब 'मिशन आरएंडएडब्लू (रॉ) के लेखक आर. के. यादव के मुताबिक़ काठमांडू में ही एक और रॉ ऑपरेटिव यू. वी. सिंह ने विमान अपहरण के कुछ दिन पहले ही तोमर को पाकिस्तानी आतंकवादियों के काठमांडू से भारतीय विमान के अपहरण की तैयारियों की सूचना दी थी। तोमर ने पहले सिंह को फिर से सूचना की तस्दीक करने को कहा, सिंह ने बताया कि पूरी जाँच परख के बाद ही सूचना दी है। इस पर तोमर ने उन्हें डाँट कर अफ़वाह न फैलाने की हिदायत दी। किस्मत का खेल देखिये कि तोमर उसी विमान में सवार मिले जिसका अपहरण हुआ!
अब सवाल यह है कि विमान को अमृतसर में रोका क्यों नहीं गया। दिल्ली में वह कौन था जिसने विमान रोकने का हुक़्म नहीं दिया। इस सवाल का जवाब तत्कालीन रॉ निदेशक ए. एस. दुलत की किताब 'द वाजपेयी इयर्स' में मिलता है।
ख़ुद दुलत ने अपनी किताब में लिखा है कि पंजाब के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक सरबजीत सिंह ने उन्हें बताया कि आतंकवाद विरोधी गतिविधियों में पंजाब पुलिस प्रशिक्षित कमांडो विमान में घुसने को तैयार थे पर उन्हें दिल्ली से निर्देश था कि कोई जान नहीं जानी चाहिए।
ख़ुद तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह विमान उड़ने की बात से हैरान थे। उन्होंने अपनी किताब इंडिया ऐट रिस्क में साफ़ कहा है कि ‘मैं आज तक अचंभित हूँ कि यह कैसे हो गया! मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि एनएसजी समय से अमृतसर क्यों नहीं पहुँच पाया। क्यों समय रहते ज़रूरी इंतज़ाम नहीं किए जा सके। नौकरशाही का यह ऐसा घपला है जो मुझे आज तक समझ नहीं आता।'
जहाज उड़ने का वाकया पूरा फ़िल्मी है। अमृतसर से जहाज उड़कर लाहौर गया, फिर दुबई, फिर कंधार जहाँ आख़िर में भारत सरकार को अपहरणकर्ताओं की बात माननी ही पड़ी। भारत को तीन आतंकी देने पड़े। और इन आतंकवादियों को कंधार तक छोड़ने गये ख़ुद जसवंत सिंह।
27 दिसम्बर को जब विमान कंधार में था और बंधकों को छुड़ाने की बातचीत चल रही थी तब पाकिस्तानी दूतावास के प्रवक्ता तारिक़ अल्ताफ़ ने इसलामाबाद में अंतरराष्ट्रीय प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी। उन्होंने विमान में रॉ अधिकारी शशि भूषण सिंह तोमर के होने की बात कही। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि तोमर ही आतंकवादियों को निर्देश दे रहे थे। यानी पाकिस्तान यह कहना चाहता था कि यह पूरा अपहरण कांड भारत ने रचा है।
भारतीय पत्रकार प्रवीण स्वामी ने फ्रंटलाइन मैगज़ीन के 22 जनवरी- 4 फ़रवरी के अंक की कवर स्टोरी में विमान में तोमर के होने का राज खोला। साथ ही यह भी लिखा कि तोमर रॉ अधिकारी होने के साथ-साथ प्रधानमंत्री वाजपेयी के ताक़तवर सचिव एन. के. सिंह के बहनोई भी थे। प्रवीण स्वामी ने यह भी लिखा कि एन. के. सिंह की बड़ी बहन श्यामा तोमर नेशनल सिक्योरिटी गार्ड्स के तत्कालीन निदेशक की पत्नी हैं! एनएसजी वही संस्था है जिसे अपहरणकर्ताओं के ख़िलाफ़ कमांडो ऑपरेशन करना था।
दिलचस्प बात यह है कि ऐसी असफल कार्रवाई में शामिल रहे सारे अधिकारियों को प्रोन्नति मिली, दुलत आईबी से रॉ चीफ़ हुए, अजित डोवाल जिन्हें कंधार भेजा गया था वे पहले आईबी मुखिया बने और आजकल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं।
और इस तरह से मसूद अज़हर बच निकला। बाद में उसने जैश-ए-मुहम्मद जैसा खूँखार आतंकवादी संगठन बनाया। अब वह भारत पर हमले पर हमले करवाता जा रहा है- संसद हमला, मुंबई हमला, पठानकोट हमला और अब पुलवामा हमला। चारों का मास्टरमाइंड वही है। और प्रधानमंत्री मोदी की तमाम कोशिशों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ से उसे वैश्विक आतंकी घोषित करवाने में भारत सफल नहीं हो पाया है।
बाक़ी देशभक्ति के दावे भी वही हैं, सिपाहियों की जान सस्ती होने का सच भी। आख़िर स्वघोषित देशभक्त और सेना प्रेमी बीजेपी की सरकारों ने भी पाकिस्तान से राजनयिक संबंध छोड़िये, आर्थिक संबंध तोड़ने तक की हिम्मत न दिखाई। न वाजपेयी ने कारगिल और संसद हमले के बाद, न पठानकोट, गुरदासपुर, कुलगाम, पुलवामा हमले आदि के बाद मोदी ने। दावे और जुमले जो भी हों, सच इतना है कि आज अभी इस वक़्त दिल्ली में पाकिस्तान हाई कमीशन की सुरक्षा में भारतीय जवान ही खड़े हैं!
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