मुद्दों से भटकी देश की सियासत में अब बिखरे विपक्ष के नए संगठन का नाम ही एक मुद्दा बन गया है । विपक्ष के पुराने गठबंधन का नाम 'यूपीए’ था जिसे बदलकर अब 'इंडिया’ कर दिया गया है। इंडिया है तो अनेक शब्दों के समुच्चय का संक्षिप्त रूप लेकिन इस नए नाम ने सत्तारूढ़ दल भाजपा की नींद उड़ा दी है। देश के प्रधामंत्री मोदी के सिर पर पहले से कांग्रेस का भूत सवार था अब उसके साथ ही ‘इंडिया’ का भूत सवार हो गया है। वे सोते-जागते इस ‘इंडिया’ का रोना रोते नजर आते हैं।
प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी रामभक्त पार्टी है। लेकिन उन्होंने शायद रामचरित मानस का पारायण अद्यतन नहीं किया जबकि इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी थोक-बजाकर लिख गए हैं कि -'कलियुग में केवल नाम का ही आधार है’ । नाम का स्मरण यानि जाप करने से ही व्यक्ति इस भव सागर से पार उतार सकता है। भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नाम में भारतीय शामिल होने पर देश में किसी को आपत्ति नहीं है । खुद भारतीय जनता पार्टी में भारतीय होने पर कोई उज्र नहीं करता तो भाजपा और देश के प्रधानमंत्री जी को विपक्ष के गठबंधन को इंडिया कहे जाने पर आपत्ति क्यों हैं, ये समझ से परे हैं।
इंडिया भारत ही है भारत ही इंडिया है जैसे अमेरिका यूएसए है या इंग्लैंड ब्रिटेन। इसी तरह यदि बिखरा विपक्ष खुदा न खास्ता इंडिया हो गया है तो हो जाने दीजिये। किसी ने आपको पीले चावल तो नहीं दिए की आप इंडिया को इंडिया कहें ? आप उसे 'इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्ल्यूसिवह अलायन्स’ कहिये न । वैसे भी देश मुद्दों पर तो चुनाव लड़ता नहीं है इसलिए इस बार का चुनाव नाम को लेकर ही लड़ा जाये तो बेहतर है। अभी तक यूपीए बनाम एनडीए होता था, अब एनडीए बनाम इंडिया होगा तो जनता को भी कुछ नया महसूस होगा। लेकिन मुश्किल ये है की विपक्ष का ‘इंडिया’ सत्तारूढ़ दल का इंडिया नहीं है । सत्तारूढ़ दल के ‘इंडिया’ में कांग्रेस और मुसलमान नहीं हैं जबकि विपक्ष के ‘इंडिया’ में सब हैं।
भाजपा संसदीय दल की बैठक में माननीय प्रधानमंत्री ने वो सब कह दिया जो उन्हें संसद के सामने कहना था लेकिन अपनी जिद की वजह से उन्होंने अब तक कहा नहीं। प्रधानमंत्री ने न संसदीय दल की बैठक में मणिपुर का नाम लिया और न बैठक के बाहर किसी और मंच पर। हालांकि वे जलते मणिपुर को अनाथ छोड़कर तमाम विदेश यात्राओं के साथ ही देश के उन तमाम राज्यों में चुनावी रैलियां सम्बोधित कर आये हैं जहां आने वाले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं। भाजपा और प्रधानमंत्री को मणिपुर और मणिपुर में फैली अराजकता की वजह से हो रही विश्व व्यापी बदनामी की फ़िक्र नहीं है । भाजपा और प्रधानमंत्री चुनावों की फ़िक्र में दुबले हुए जा रहे हैं। हमें ये अच्छा नहीं लग रहा। किसी को भी ये अच्छा नहीं लगेगा की उसके देश का प्रधानमंत्री किसी फ़िक्र में दुबला हो !
बिखरे विपक्ष की एकजुटता सत्तारूढ़ दल के लिए अचानक चुनौती में कैसे बदल गयी, ये समझ से बाहर है। समझ से बाहर तो विपक्ष का सरकार के खिलाफ अचानक अविश्वास प्रस्ताव लाना भी है। विपक्ष भी खूब है। उसने भी रामचरित मानस नहीं पढ़ा । मानस में साफ़ लिखा है -'का वर्षा जब कृषि सुखाने, समय चूकि पुनि का पछताने’ । अरे भाई अब अविश्वास प्रस्ताव लाने से क्या हासिल? ये तो बहुत पहले लाया जाना चाहिए था। देश की जनता का विश्वास सरकार से उठे एक जमाना बीत गया। 'आपसे हमको बिछुड़े हुए' की तरह। अब तो फैसला जनता की अदालत में होना है । संसद में सरकार के पास पर्याप्त संख्या बल है । सदन में उसे चित नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री सदन में बोलें या न बोलें विपक्ष उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
हकीकत ये है कि विपक्ष भी अब सांप निकलने के बाद बनी लकीर पीट रहा है । सरकार को नहीं बोलना तो सरकार नहीं बोलेगी । उसे मजबूर नहीं किया जा सकता। आप चाहे जितना हंगामा कर लीजिये कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। सरकार शतुरमुर्ग बन चुकी है । सरकार ने रेत में अपना सर छिपा लिया है। उसे उम्मीद है कि विपक्ष द्वारा खड़ी की गयी ‘इंडिया’ नाम की आंधी या तूफ़ान भी खामोशी के साथ गुजर जाएगा। मुझे सरकार के आत्मविश्वास पर पूरा विश्वास है इसलिए मै सरकार के प्रति अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता। मुझमें यानि आम आदमी में सीधे खड़े होने की कूबत बची ही नहीं है। आम आदमी बीते 9 साल में इतनी जगह से तोड़ा जा चुका है की वो सीधा खड़ा हो ही नहीं सकता। यही सरकार की सबसे बड़ी सफलता है।
देश संसद पर प्रति घंटे कम से कम 2 करोड़ रूपये खर्च करता है यानि संसद पर हर साल होने वाले सत्रों पर दो सौ करोड़ से कम खर्च नहीं होता, बदले में जनता को क्या हासिल होता है ? केवल हंगामा। विपक्ष में कोई भी हो उसका काम है हंगामा करना । कोई देश की सूरत बदलने के लिए संसद में जिरह करने नहीं आता। सरकार का तो जिरह में यकीन ही नहीं रहा । सरकार हर काम ध्वनिमत से करना चाहती है। चूंकि सरकार ऐसा चाहती है इसलिए सारे काम ध्वनिमत से हो भी जाते हैं। विपक्ष और विपक्ष के साथ देश की जनता टापती रह जाती है। सांसदों को तो फिर भी सदन में हाजरी का पैसा मिल जाता है जनता को तो वो भी हासिल नहीं है।
मजा तो तब आता जब संसद की कार्यसूची को स्थगित कर केवल और केवल मणिपुर पर बहस होती । विपक्ष सरकार पर अपना नजला झाड़ता और सरकार विपक्ष के साथ पूरी दुनिया को जबाब देती। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। ऐसा हो भी नहीं सकता था। कम से कम मोदी के रहते तो ऐसा नामुमकिन है। दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें सदन में बयान देने के लिए विवश नहीं कर सकती, यहां तक की सर संघ चालक भी।
अब देश के भविष्य का फैसला संसद में नहीं बल्कि मतदान केंद्रों पर ही होगा।देश की जनता को भी अब धैर्य रखना चाहिए। विपक्ष को भी समझदारी से काम लेना चाहिए।
खैर जो नहीं हुआ सो नहीं हुआ।
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