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हिन्दुत्वः आरएसएस और योगी का सनातन शांति लाएगा या संघर्ष?

पिछले दिनों देश के जाने माने पत्रकार अच्युतानंद मिश्र के सम्मान समारोह के मौके पर उत्तर प्रदेश के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी से मुलाकात हो गई। उनका कहना था कि वे 72 देशों का दौरा करके आए हैं। और अब वे इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि सनातन धर्म ही दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म है और उसके चिह्न और अवशेष पूरी दुनिया में मौजूद हैं। ज्यादा पूछने पर वे दावा करने लगे  कि ईसाई और इस्लाम की धर्मस्थलियां भी वास्तव में सनातन धर्म की स्थलियां ही हैं। वे कह रहे थे इस बार के कुंभ में वे कोई बड़ा धमाका करने जा रहे हैं।
हाल में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में दावा किया कि पूरी दुनिया में सिर्फ सनातन धर्म ही शांति कायम कर सकता है तो उन अधिकारी महोदय के तार मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान के सोच से जुड़ते नजर आए। योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि सनातन धर्म भारत का राष्ट्रीय धर्म है। भारत तब तक रहेगा जब तक सनातन धर्म है। हम सबको मिलकर इसकी रक्षा करनी चाहिए। 
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योगी ने आगे कहा, ``मैं हमेशा कहता हूं कि मानवता को बचाने के लिए दुनिया में एक ही रास्ता है और वह है सनातन धर्म। जब तक सनातन धर्म सुरक्षित है तब तक दुनिया सुरक्षित है। कोई दूसरा धर्म सबके कल्याण की बात नहीं करता। सनातन ही वह धर्म है जो संकट के समय हर जाति हर धर्म की रक्षा करता है और उन्हें फलने फूलने का अवसर देता है।’’
कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि योगी का सनातन धर्म का यह दावा स्वयं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के उस बयान से टकराता है जिसमें उन्होंने भारत में सद्भाव कायम करने का आह्वान किया है और कहा है कि अयोध्या में राम मंदिर बन जाने के बाद अब हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढने का काम बंद किया जाना चाहिए। जबकि उत्तर प्रदेश में तमाम समूह यही काम कर रहे हैं और उन्हें सरकार से संरक्षण प्राप्त है। हाल में संभल में पुलिस और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच टकराव भी उसी सोच के चलते हुआ। अगर सनातन धर्म को श्रेष्ठ बताकर और दूसरे धर्मों को हेय बताकर सनातन से उन्हें दबाने का प्रयास कायम किया जाएगा तो शांति कैसे कायम होगी यह बात समझ से परे है। हकीकत में तो संघर्ष ही होता नजर आ रहा है।
हालांकि जो लोग यह मानते हैं कि योगी का बयान मोहन भागवत के बयान को चुनौती देने वाला है वे शायद भूल रहे हैं कि संभवतः साल भर पहले मोहन भागवत ने भी वैसा ही बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि दुनिया 2000 साल से कष्ट भोग रही है, केवल सनातन धर्म ही उसे ठीक कर सकता है। इसलिए यह सवाल उठता है कि यह सारे बयान किसी रणनीति के हिस्से हैं या किसी तरह से गहरे विश्वास के प्रतीक हैं? वास्तव में संघ परिवार और हिंदुत्ववादियों के बयानों में रणनीति और वैचारिक प्रतिबद्धता का अंतर कर पाना कठिन होता है। वे अपनी पोजीशन बदलते रहते हैं। इसलिए इस बात में भी दम है कि योगी यह बयान लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद प्रयाग में आयोजित हो रहे महाकुंभ के मौके पर अपना जनाधार बढ़ाने और हिंदू गोलबंदी के लिए दे रहे हैं। शायद उनका लक्ष्य हिंदू हृदय सम्राट की छवि हासिल करके मोदी के सच्चे उत्तराधिकारी बनने का भी है। लेकिन बात इतनी ही नहीं है।
सनातन धर्म क्या है और इसका प्रयोग कब और किन अर्थों में किया जाने लगा यह शोध और चर्चा का विषय है। हिंदू धर्म के एक विद्वान देवदत्त पटनायक का कहना है कि इस शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में नहीं है। उनके अनुसार इसका सबसे पहले प्रयोग स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म के लिए किया था। उस समय इस प्रयोग का एक उद्देश्य यह भी था कि किस तरह से ईसाई मिशनरियों के धार्मिक श्रेष्ठता के दावे को चुनौती दी जाए।
लेकिन सनातन धर्म जैसी पदावली का प्रयोग महाभारत में हुआ है। यक्ष युद्धिष्ठिर से प्रश्न करता है किः---समस्त प्राणियों का अतिथि कौन है? सनातन धर्म क्या है? यह सारा जगत क्या है? इसके उत्तर में युद्धिष्ठिर कहते हैः—अग्नि समस्त प्राणियों का अतिथि है। गौ दूध अमृत है। अविनाशी नित्यकर्म ही सनातन धर्म है और वायु यह सारा जगत है।
ध्यान देने की बात यह है कि सनातन धर्म की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अवधारणा हिंदू समाज में भी सर्वस्वीकार्य नहीं है। महात्मा गांधी स्वयं को सनातनी हिंदू कहते थे लेकिन उनके चिंतन में हिमालय जैसी ऊंची और हिंद महासागर जैसी गहरी उदारता थी। अपने धर्म के लिए श्रेष्ठता भाव तो था ही नहीं बल्कि सभी धर्मों को समान ही मानते थे। यही बात विवेकानंद के चिंतन में है। गांधी तो सनातन धर्म को परिवर्तनशील मानते थे। हिंदू धर्म के एक और विद्वान और कई मौकों पर कट्टर रुख अपनाने वाले स्वामी करपात्री जी ने तो आरएसएस की हिंदू धर्म की समझ को ही चुनौती दे डाली है।
स्वामी करपात्री अपनी प्रसिद्ध पुस्तक `आरएसएस और हिंदू धर्म’ में कहते हैं----हिंदू धर्म त्रिकाल बाधित शास्वत सत्य की अभिव्यक्ति करता है। इसीलिए उसका स्वरूप सनातन है। वह व्यक्ति विशेष की मान्यताओं से परे अपौरुषेय है। देशकाल के अनुसार मानव व्यवहार के जिस पक्ष की आवश्यकता होती है तत्कालीन व्याख्याता उसी पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। कौटिल्य, शंकराचार्य और तुलसीदास ने यही कहा है। वे आगे कहते हैं----गोलवलकर कहते हैं कि हिंदू धर्म की कोई एक किताब नहीं है। पर वास्तव में धर्म, ब्रह्म और उसके अनुष्ठान आदि तो शास्त्र से नियंत्रित होते हैं। इसलिए हर कोई ब्रह्मवादी किसी न किसी धर्मग्रंथ को प्रमाण मानता ही है। एक किताब को प्रमाण मानने वाले अगर गलत कहे जाएंगे तो एक राष्ट्रीयता की बात करने वाले हिटलर और मुसोलिनी कहे जाएंगे। रामायण और महाभारत महत्त्वपूर्ण प्रमाण हैं। शास्त्र ही परम प्रमाण है। 
सनातन धर्म की एक परिभाषा विनायक दामोदर सावरकर ने भी दी है। उनका कहना है कि , ``ज्यादातर हिंदुओं के धर्म को प्राचीन स्वीकृत संबोधन से जाना जाता है। जिसे सनातन धर्म, श्रुति स्मृति धर्म और पुराणोक्त धर्म कहा जाता है। जबकि बाकी हिंदुओं के धर्म को सिख धर्म या आर्य समाज धर्म कहा जाता है।’’
हिंदू धर्म या सनातन धर्म पर गहन शोध करने वाले इतिहासकार प्रोफेसर अरविंद शर्मा ने इस धारणा का खंडन किया है कि हिंदू धर्म एक अंतर्मुखी धर्म था और अपने भौगोलिक दायरे से बाहर प्रसार नहीं करता था। उनका कहना है कि प्राचीन काल में यह एक मिशनरी धर्म था और दूसरे धर्म के लोगों को हिंदू या सनातन धर्म में परिवर्तित किया जाता था।
सवाल उठता है कि सनातन धर्म श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों का ध्वज वाहक होकर जगत का कल्याण करेगा या मंदिर मस्जिद और चर्च का विवाद उठाकर। अगर सनातन धर्म सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, जीवों को हानि न पहुंचाना, सदिच्छा, दया, धैर्य, सहनशीलता, संयम और वैराग्य जैसे मूल्यों को स्थापित करने का दावा करता है तो रोज ब रोज मंदिर मस्जिद विवाद उठाकर वह इस उद्देश्य की पूर्ति कैसे कर सकता है।
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वास्तव में हमारे राजनेता और कथित सांस्कृतिक संगठन के प्रमुख सनातन धर्म की जिस तरह से व्याख्या कर रहे हैं उसका उद्देश्य अपनी सत्ता की महत्त्वाकांक्षा पूरी करना और संगठन का विस्तार है। उससे इस सनातन धर्म के महान और श्रेष्ठ मूल्यों को प्रतिष्ठा मिलने के बजाय उनका ह्रास ही होगा। उनका एक उद्देश्य लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप के विकास को बाधित कर देना है। एक प्रकार से वे भारतीय लोकतंत्र के जहाज को सनातन धर्म के ग्लेशियर से टकराकर उसे डुबो देना चाहते हैं। इसलिए मौजूदा व्याख्या नए संघर्षो का आह्वान कर रही है। संभव है कि इससे आंबेडकर जैसे विद्रोही विचारकों को हिंदू और सनातन धर्म के दायरे में समेटने के प्रयास भी पूरी तरह विफल हो जाएं और नए पेरियार, फुले और आंबेडकर जन्म लें। लेकिन उससे पहले सांप्रदायिक विवाद और टकराव के नए रूप उभरेंगे और शांति कायम करने का सनातनी दावा वास्तव में नए किस्म के संघर्ष में बदल जाएगा।
(लेखक अरुण कुमार त्रिपाठी के फेसबुक पेज से साभार)
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अरुण कुमार त्रिपाठी
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