प्रधानमंत्री मोदी के जन्म के लगभग बीस साल पहले अमेरिका की मशहूर टाइम मैगज़ीन ने ‘टाइम पर्सन ऑफ़ द इयर’ चुनते हुए महात्मा गाँधी की तस्वीर अपने कवर पेज पर छापी थी। 1927 से यह ख़िताब पूरी दुनिया को अपनी शख़्सियत से सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाले व्यक्ति को दिया जाता है और महात्मा गाँधी अकेले भारतीय हैं जिन्हें यह सम्मान हासिल हुआ है।
इसके पीछे 1930 में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चला ‘नमक सत्याग्रह था' जिसने करोड़ों भारतीयों के मन से अंग्रेज़ी सत्ता का ख़ौफ़ निकाल दिया था। गाँधी जी के ‘दांडी मा’र्च के समर्थन में भारत के चौराहे-चौराहे नमक बनाया जा रहा था और दुनिया हैरानी होकर सत्याग्रह के ताक़त को महसूस कर रही थी। इसके आठ साल पहले वह असहयोग आंदोलन का ताप भी महसूस कर चुकी थी।
लेकिन तीसरी बार भारत का प्रधानमंत्री बनने के लिए बेक़रार नरेंद्र मोदी ने एक चैनल को इंटरव्यू देते हुए कहा, “पहली बार जब गाँधी फ़िल्म बनी तब दुनिया में क्यूरिओसिटी हुई कि अच्छा ये कौन है? अगर मार्टिन लूथर किंग को दुनिया जानती है, अगर हमारे साउथ अफ्रीका के नेल्सन मंडेला जी को दुनिया जानती है, गांधी जी किसी से कम नहीं थे।”
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गाँधी जब कहते हैं कि ‘सिर्फ़ एंटायर पॉलिटिक्स के छात्र को ही महात्मा गाँधी के बारे में जानने के लिए फ़िल्म देखने की ज़रूरत होगी’ तो यह सिर्फ़ व्यंग्य नहीं है। यह बताता है कि मोदी जी जिस आरएसएस की नर्सरी से निकलकर आये हैं वहाँ गाँधी के बारे में किस क़दर अज्ञान भरा है।
वहाँ गोडसे के बारे में तो विस्तार से जानकारी दी जाती है, यहाँ तक कि गाँधी जी की हत्या को जायज़ ठहराने वाली गोपाल गोडसे (हत्यारे नाथूराम गोडसे के भाई) की किताब ‘गाँधी वध क्यों’ तो अनिवार्य पाठ में शामिल है, लेकिन आज़ादी के आंदोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका और तात्कालिक वैश्विक परिदृश्य पर कोई चर्चा शायद ही होती हो। मोदी जी भी ‘प्रचारक' की हैसियत से यही सब प्रचारित करते हुए राजनीतिक सफ़र की बुलंदियों तक पहुँचे हैं। उन्हें अपना ज्ञान बढ़ाने का या तो अवसर नहीं मिला, या फिर उनकी रुचि नहीं रही।
मोदी जी की मानें तो 1982 में रिलीज़ हुई रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म के ज़रिए पहली बार दुनिया ने महात्मा गाँधी को जाना। उनका सवाल है कि क्या महात्मा गाँधी के विचारों को बढ़ावा देने का काम नहीं करना चाहिए था? साफ़ है कि उनका निशाना कांग्रेस सरकारों, ख़ासतौर पर नेहरू पर है जिन्होंने उनके मुताबिक़ गाँधी के विचारों को दुनिया के सामने लाने के लिए कुछ नहीं किया।
पहले ज़रा इस तोहमत के पहले भाग पर विचार करें, यानी दुनिया फ़िल्म के पहले गाँधी को नहीं जानती थी! इस लेख की शुरुआत में ही बताया गया है कि टाइम मैगज़ीन ने महात्मा गाँधी की तस्वीर कवर पेज पर छापी थी। लेकिन गाँधी की वैश्विक प्रसिद्धि तो उनके भारत आने से बहुत पहले उनके दक्षिण अफ़्रीका में ही रहते हो गयी थी। दक्षिण अफ़्रीका में 1909 में गाँधी जी पर पहली किताब प्रकाशित हुई थी जिसे अंग्रेज़ पादरी रेवरेंड डोके ने लिखी थी। 1910 में गाँधी जी महान रूसी साहित्यकार और दार्शनिक लेव तोलस्तॉय से पत्र व्यवहार कर रहे थे जो उनके ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ के सिद्धांत से बेहद प्रभावित थे जो आगे चलकर सविनय अवज्ञा के रूप में विकसित हुआ।
महात्मा गाँधी और भारत की आज़ादी के लिए किये जा रहे उनके अनोखे सत्याग्रह के प्रयोग की चर्चा पूरी दुनिया में थी। सच तो यह है कि महात्मा गाँधी एक विश्वप्रसिद्ध शख़्सियत के रूप में ही 1915 में भारत लौटे थे। यही वजह थी कि बंबई (अब मुंबई) में उनका स्वागत करने वाली विशिष्टजनों की सभा में फ़ीरोज़शाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक के अलावा मो.अली जिन्ना भी थे। तब 45 साल के हो चले गाँधी की शोहरत का आलम ये था कि भारत लौटने के कुछ समय बाद ही उन्हें ब्रिटिश सरकार ने ‘कैसर-ए-हिंद’ की उपाधि दी थी। उसे डर था कि गाँधी दक्षिण अफ़्रीका की तरह भारत में भी कोई प्रयोग न शुरू कर दें इसलिए सम्मान का यह दाँव फेंका गया था।
जिन नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग जूनियर का हवाला नरेंद्र मोदी ने अपने उलाहने में दिया है, वे भी दरअसल, महात्मा गाँधी को भी अपना पथ प्रदर्शक मानते थे। अमेरिका में अश्वेतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए 1964 में शहीद हो जाने वाले मार्टिन लूथर ने तो महात्मा गाँधी की वजह से अपनी भारत यात्रा को तीर्थयात्रा क़रार दिया था। वे जूते उतार कर राजघाट में महात्मा गाँधी की समाधि पर फूल चढ़ाने पहुँचे थे।
वहीं 27 साल तक जेल में रहने वाले नेल्सन मंडेला को तो दक्षिण अफ़्रीका का गाँधी ही कहा जाता है। 1994 में जब मंडेला को नोबेल पुरस्कार मिला तो उन्होंने इसका पूरा श्रेय महात्मा गाँधी को दिया था। उन्होंने कहा था, “भारत गाँधी को जन्म देने वाला देश है, दक्षिण अफ़्रीका उनका गोद लिया देश है!”
नरेंद्र मोदी का जिस साल जन्म हुआ, उसी साल यानी 1950 में अमेरिकी पत्रकार लुई फ़िशर की मशहूर किताब ‘द लाइफ ऑफ महात्मा गांधी’ का प्रकाशन हुआ था। इसी किताब की धूम पूरी दुनिया में थी और इसे पढ़कर ही रिचर्ड एटनबरो गाँधी जी पर फ़िल्म बनाने को बेचैन हो उठे थे। एटनबरो ने इस सिलसिले में 1963 में दिल्ली आकर पं.नेहरू से मुलाक़ात भी की थी। लेकिन अगले साल ही नेहरू की मृत्यु हो गयी और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। यह प्रोजेक्ट दोबारा तब परवान चढ़ा जब 1980 में सत्ता में लौटीं।
इंदिरा गाँधी ने तमाम विरोध के बावजूद इस प्रोजेक्ट में रुचि ली और फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया(NFDC) से सात मिलियन डॉलर लोन की व्यवस्था कराई जो आज के हिसाब से क़रीब 60 करोड़ रुपये होते हैं। यह फ़िल्म के कुल बजट की एक तिहाई राशि थी। यानी जिस फ़िल्म को नरेंद्र मोदी गाँधी जी की प्रसिद्धि का एकमात्र कारण मानते हैं उसके पीछे भी तत्कालीन कांग्रेस सरकार ही थी।
वैसे महान भौतिक विज्ञानी अलबर्ट आइंस्टीन को एटनबरो की फ़िल्म ‘गाँधी’ देखने का अवसर नहीं मिला था फिर भी गाँधी जी को श्रद्धांजलि देते हुए उन्होंने कहा था, “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।” यही हाल उपन्यास लेखिका पर्ल एस. बक़ का भी था जिन्होंने गाँधीजी की हत्या को ईसा मसीह की सूली के समान बताया था।
गाँधी जी की हत्या के बाद भारत को विदेशों से संवेदना के 3441 संदेश प्राप्त हुए थे जिनमें एक संदेश अमरीकी संयुक्त राज्यों के राज्य-सचिव जनरल जार्ज मार्शल का था। उन्होंने अपने संदेश में कहा था- "महात्मा गांधी सारी मानव-जाति की अंतरात्मा के प्रवक्ता थे।”
महात्मा गाँधी की शहादत की ख़बर पाकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने शोक में झंडा झुका दिया था। यह सब तब हो रहा था जब महज़ 25 साल के रिचर्ड एटनबरो अभिनेता के तौर पर सफल होने का प्रयास कर रहे थे। गाँधी फ़िल्म के रिलीज़ होने में अभी 34 साल का लंबा समय बाक़ी था जो मोदी जी के हिसाब से दुनिया के सामने गाँधी जी को लाने का पहला ज़रिया बनी।
वैसे इस आलोचना में दम है कि गाँधी जी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए अपेक्षित प्रयास नहीं किया गया। महज़ करेंसी नोट में गाँधी जी की तस्वीर छाप देने या स्कूली किताबों के आख़िरी पन्ने में ‘गाँधी जी का जंतर’ छाप देना काफ़ी नहीं था। न यह देखकर ख़ुश हुआ जा सकता है कि दुनिया में ज़्यादातर देशों में महात्मा गाँधी की प्रतिमा स्थापित है।
असल मसला है गाँधी जी के ‘सत्य और अहिंसा’ के विचार को सार्वजनिक जीवन में एक ‘मूल्य' की तरह स्थापित करना। समाज में प्रेम, करुणा और भाईचारा की भावना बढ़ाना। पर इसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा तो वही विचारधारा है जिसके प्रभाव में आकर नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधी की हत्या की थी। महात्मा गाँधी तो हिंदू-मुस्लिम एकता के सबसे बड़े पैरोकार थे लेकिन उनके विचारों के प्रचार-प्रसार में कमी रखने की तोहमत मढ़ने वाले पीएम मोदी के चुनावी भाषण तो दोनों समुदायों के बीच दूरियाँ बढ़ाने के लिए चर्चा बटोर रहे हैं। ऐसे में मोदी जी की गाँधी के विचारों को लेकर जतायी गयी इस चिंता को कोई गंभीरता से ले भी तो कैसे?
पुनश्च: रिचर्ड एटनबरो जब गाँधी जी पर फ़िल्म बनाने की इच्छा को लेकर दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू से मिले थे तो उन्होंने एक ही बात कही थी- “रिचर्ड, तुम अपनी फिल्म में उन्हें (गाँधी जी) ईश्वर की तरह मत दिखाना। हमने यहाँ उनके साथ यही किया है। वो ईश्वर बनाए जाने के लिहाज़ से बहुत महान इंसान थे।” ज़ाहिर है, नेहरू जी देवता बनने-बनाने के ख़तरे को समझते थे। कौन जानता था कि नेहरू जी की कुर्सी पर कभी नरेंद्र मोदी बैठेंगे जिनके समर्थक उन्हें साक्षात ईश्वर का अवतार बतायेंगे और वे ख़ुद को परमात्मा का भेजा गया दूत!
(वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव कांग्रेस से जुड़े हैं)
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