15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता दिए जाने के बावजूद हिजड़े भारतीय समाज के लिए अभी पराये ही हैं। साफ़ तौर पर अगर कहूँ तो इस लेख का उद्देश्य हिजड़ों की जीवन-शैली पर किसी तरह का इन्वेस्टिगेशन करना नहीं है, और न ही यह स्थापित करना है कि अपने अस्तित्व के लिए अपने हिस्से की जमीन या इलाके के मालिक होने की उनकी मान्यता पूरी तरह निर्दोष या बहुत आसान है। बल्कि यहाँ मेरा उद्देश्य जमीन या इलाके के मालिक होने की उस मान्यता को रेखांकित करने की है जिसकी उत्त्पत्ति शोषण और लगातार हाशिये पर धकेल दिए जाने के कारण हुई है।
यहाँ मेरा उद्देश्य हिजड़ों के जीवन से जुड़े दो ख़ास पहलुओं को उजागर करना है । पहला, तो यही कि यदि नवउदारवादी सन्दर्भों में देखें तो जो समुदाय इतिहास,वर्चस्व, साजिशन या सामाजिक उपेक्षाओं के कारण संपत्ति की बुनियादी व्यवस्था से बाहर कर दिए जाते हैं, वे बाहर कर भुला दिए लोग अंततः एक अस्तित्वविहीन नागरिक, समुदाय बनने के लिए मजबूर हो जाते हैं, और अंततः धीरे-धीरे किसी भी सरकारी योजना से गायब और कानून की सुरक्षा से बाहर हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर शहरों की आतंरिक बसावट को लिया जा सकता है।
औपनिवेशिक युग के अवसान के साथ ही भारत में अगले कई दशकों तक शहरों का बहुत तेजी से विकास हुआ। इस विकास की एक ख़ास बात यह थी कि नए वाशिंदों के लिए जमीनों की कमी पड़ने लगी, जिसकी वजह से शहरों का शहरीकरण किसी योजना के बगैर होने लगा। शहर के बेतरतीब बसने के पीछे नए बसने वालों के पास मौजूद संसाधनों की कमी भी एक कारण थी। ज्यादातर देखा गया है कि यह बेतरतीब और बिना किसी योजना बसी हुई बस्तियां, शहर की व्यवस्थित और दैनिक गतिविधियों वाले तरतीब इलाकों से दूर और अलग-थलग होती हैं।
समय बीतने के साथ जब शहर के व्यवस्थित और अव्यवस्थित, सेंटर और पेरिफरी के इलाके आपस में मिल जाते हैं तब सरकार द्वारा इन बेतरतीब और अव्यवस्थित इलाकों को मुख्य शहर के अनुसार बनाने और बसाने के लिए वहां के मूल वाशिंदों से छीनकर उस जमीन और संपत्ति को संसाधन संपन्न लोगों हस्तांतरित और बेच देती है। इस पूरी प्रक्रिया में वहां बसे हुए मूल वाशिंदों को भुलाकर हाशिये पर डाल दिया जाता है।
दूसरा, हिजड़े कहाँ रहते हैं, और वह जिस तरह से, जिस हालात में रह रहे हैं उस तरह रहने के लिए बाध्य क्यों हैं। इस पर विचार करने में हमें उस अवधारणा से मदद मिलती है जिसके अनुसार जायजाद का मालिक होने और उसको एक प्रोडक्ट में बदले जाने की पूरी प्रक्रिया हमारी कुछ विशेष धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होती हैं। हिजड़े जहाँ रहते हैं वहाँ उनकी कोई निजी जायदाद नहीं होती, और न ही वे ऐसा कर सकते हैं। इसके बाद भी वे अपना जीवन बिता लेते हैं।
यह लेख पाठकों को हिजड़ों की पर्दे के पीछे छुपी हुई अदृश्य दुनिया को संपत्ति के अधिकार, जमीन के विभाजन, और एक दूसरे से शेयर करने के वर्किंग क्लास क्वियर मॉडल और इन सबका धार्मिक परंपराओं से संबंध जैसी अनेक संगतियों-विसंगतियों को समझने का प्रयास करता है। इसके साथ ही हिजड़ों का जीवन हमें उस बुनियादी सवाल का जवाब तलाशने में मदद करता है, जिसके अनुसार संपत्ति का मालिक, और उस मालिकाने और उत्तराधिकार से बेदखल कर दिए जाने के बाद उनके जीवन-सार के रूप में समस्त मनुष्य-प्रजाति के सामने यह दर्शन प्रकट होता है : कि आखिर हमें कितनी ज़मीन या जायजाद की ज़रूरत है?
अंग्रेजों ने हिजड़ा होने को 1871 के ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ के अनुसार अपराध बताया, और उनके उत्तराधिकार संबंधी अधिकारों को छीनते हुए आम जनता के मन से हिजड़ों को विस्मृत कर देने का अभियान चलाया। अपनी संपत्ति और उत्तराधिकारों से वंचित किये जाने के बाद हिजड़े गुमनामी का जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिए गए। तब से हिजड़े हमारे समाज के हाशिये पर चले गये और गुमनामी का जीवन व्यतीत करने लगे। वे अपने आशीर्वचनों और दुआओं के बदले दान में मिले पैसों,शादी-ब्याह और स्टैग पार्टियों (सिर्फ़ पुरुषों की पार्टी) में नाच-गाकर, भिक्षा मांगकर और अपनी मर्जी के बिना यौन गतिविधियों में संलिप्त होकर अपना गुज़र-बसर करते हैं।
हिजड़ा बनने वाले अधिकतर लोग मजदूर वर्ग या निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमियों से आते हैं। आज हिजड़ा बनने और हिजड़े के रूप में पहचाने जाने के लिए एक व्यक्ति को गोद लेने (दत्तक) की एक लंबी और जटिल प्रक्रिया से होकर गुज़रना पड़ता है। यह प्रक्रिया उनकी समुदायिक पहचान और सामाजिक श्रेणियों के साथ-साथ हिजड़ा गुरु के संरक्षण पर आधारित होती है। इस प्रक्रिया को भारत में कानूनी मान्यता अभी तक नहीं मिली है।
दान और लोगों से मिले उपहारों से अपना भरण-पोषण करने वाले हिजड़ा समुदाय ने दान उपहार लेने, आशीर्वाद देने, बधाई गाने आदि के लिए आपस में अपने-अपने मोहल्ले और कस्बों के बंटवारे की एक व्यवस्था विकसित कर ली है जो उनकी अपनी-अपनी चौहद्दी होती है – जिन्हें वे इलाक़ा कहते हैं। इन इलाक़ों की सरहदें एक दूसरे के लिए तय होती हैं जो उनकी हाईरारिकी, कमाई और वरीयता पर निर्भर होती है। वे अपनी आजीविका के लिए दान इकट्ठा करने, शादी-ब्याह आदि समारोहों में उपहारों या नक़दी के बदले आशीर्वाद व दुआएं देने और धंधा करने की गरज़ से इन इलाकों की सरहदों का बंटवारा करते हैं।
मैंने अपने अध्ययन के क्रम में हिजड़ों की मदद से उनके इलाक़ों का एक खाका तैयार करने की कोशिश की, ताकि उनके निवास और आजीविका के लिए तय इलाक़ों के बंटवारे के गणित को समझा जा सके। यह सनद रहे कि इन इलाक़ों पर उनका कोई क़ानूनी दावा नहीं होता है। इलाकों की इस हदबंदी ने स्थानीयता के ज़रिये उनके भौगोलिक बहिष्कार से जुड़े अनेक राज उजागर किये। जहाँ मैं इस नतीजे पर पहुंची कि हिजड़ों की अपनी पहचान और उनकी स्थानीय पहचान के बीच पारस्परिक घनिष्ठ संबंध है। यह बात भी उभर कर सामने आई कि अपने-अपने इलाक़े में हिजड़ों की लगातार घुमक्कड़ी उनके सामुदायिक सौहार्द, श्रेणियों पर आधारित उनके आपसी संबंध और गुरु परंपरा पर आधारित उनके अलग समाज की अस्तित्व-रक्षा के लिए यह आवश्यक है।
इसी बात को अगर दूसरे सिरे से देखें तो हिजड़ों का पारिवारिक जीवन, इलाक़े में उनकी सक्रिय उपस्थिति पर निर्भर है, जबकि उदारवादी अथवा नवउदारवादी व्यवस्था में हम ऐसे भूस्वामीयों की कल्पना कर सकते हैं जो उन इलाकों में न रहते हों और न ही अपने स्वामित्व के लिए उन्हें सामाजिक रूप से सक्रिय ही रहना पड़े, लेकिन हिजड़ों के सन्दर्भ में एक छोटे से इलाक़े पर भी उनकी दावेदारी उस इलाक़े में अनिवार्यतः उनकी सक्रिय उपस्थिति पर निर्भर है।
इन इलाक़ों की सरहदों का ख़याल और सम्मान वे सभी हिजड़े करते है जो पद में नीचे होते हैं, क्योंकि इलाक़ों का बंटवारा ही समुदाय में हिजड़ों की हैसियत तय करता है, और यही बंटवारा समुदाय के उप-समूहों का आंतरिक सौहार्द भी बनाए रखता है। इन सरहदों की पुष्टि और हिफ़ाज़त हिजड़ों की जमात करते हैं जो समुदाय में अनुशासन बनाए रखने और सजा देने सम्बन्धी करवाई के लिए भी ज़िम्मेदार होते हैं।
इन सब बातों को ज़ेहन में रखकर ही हिजड़े और उनके आसपास के लोग, उनकी सक्रियता वाले इलाकों में इनके समूहों और उपसमूहों से ही उन इलाक़ों को पहचानने और उनके बीच संबंध स्थापित करने, या अलग करने का कार्य करते हैं। इस नज़रिए से अगर देखें तो उनका इलाक़ा ही अंततः उनकी पहचान बन जाता है। उनका इलाका हमेशा ही उनकी सक्रियताओं और पेशेगत गतिविधियों से आबाद रहता है। हिजड़ों के इलाक़ों में उनकी सक्रियता और सौदों पर उनके जमात की हर हफ्ते बैठक व बहसें होती हैं। इन बैठकों में इलाक़े और हिजड़ों के सरदार के बीच संबंधों पर निरंतर बातचीत चलती रहती है जहाँ उनके वफादार भेदिये जमात में शामिल हुए नए हिजड़ों के कामकाज और आमदनी से उन्हें अवगत कराते हैं।
इलाक़े के नाम से जानी जाने वाली ज़मीन की यह काल्पनिक समझ भारत में हिजड़ों के अंदरूनी संबंधों द्वारा ही स्पष्ट होती है। यह जीवन-पद्धति भारत में जिस संस्कृति को प्रोत्साहित करती है वह उदारवादी और निजी संपत्ति के व्यक्तिगत मालिकाने वाले समाज के एकदम विपरीत है। उनके इलाक़ों को जब मैं इस नजरिये से समझने का प्रयास कर रही थी तो मैंने पाया कि भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत जहाँ इसे कोई भी आधिकारिक मान्यता नहीं मिली है इसके बावजूद दिल्ली में हिजड़ों के ऐसे अनेक घराने जिनके समूहों और इलाक़ों के संबंध में स्थानीय पुलिस स्टेशन को लिखित सूचनाएं प्राप्त होती हैं जिनमें उनके वरिष्ठ गुरुओं और हिजड़ा सरदारों के नामों का भी उल्लेख होता है। पुलिस रजिस्टर में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख है कि पुलिस को जहाँ तक संभव हो हिजड़ों के अंदरूनी विवादों, चोरी, दूसरे के इलाक़ों में घुसपैठ, उत्पीड़न और मारपीट जैसी छोटी-मोटी घटनाओं में दखलंदाजी से बचना चाहिए।
आज के समय और समाज में भारत सहित दुनिया के ज्यादातर धार्मिक समुदायों से अलग हिजड़ा समुदाय भू-स्वामित्व के चलन से ख़ुद को दूर रखता है। हिजड़े एक धार्मिक समुदाय के रूप में केवल उसी भूमि का उपयोग करते हैं जिसका उपयोग वे अपनी आजीविका के लिए करते है। उनका इलाका ही उनकी इबादतगाह है।
हिजड़े हर दिन एक निश्चित समय पर अपने इलाक़ों में गश्त लगाते हैं, जिसके बाद उस इलाक़े से हुई कुल आमदनी एक जगह इकठ्ठा की जाती है। इस आमदनी को गुरु अपनी समझ से अलग-अलग उपसमूहों में बाँट देता है। इन्हीं इलाक़ों के जरिये होने वाली ज़मीन के इस्तेमाल से हिजड़े, खुद को आर्थिक रूप से सबल बनाने और नये हिजड़ों को रोज़गार देने की एक ऐसी व्यवस्था विकसित कर लेते हैं जो भारतीय दंड संहिता के खिलाफ होने के बाद भी उन्हें आर्थिक सुरक्षा देने में सहायक सिद्ध होती है।
इलाकों का यह क्षेत्रीय बंटवारा हिजड़ों की आने वाली पीढ़ियों में भी अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखने में भी कारगर साबित होती है। बहरहाल पारंपरिक कर्मकांड से या दरवाजे-दरवाजे मांगकर ही या धंधा करके – हिजड़े जिस भी कर्म से अपना पेट पालें, लेकिन उनकी जीविका को और समाज सहित दोनों ही मामलों में उनकी वास्तविक स्वीकार्यता अभी बाकी है। लेकिन इस पूरी बहस का हासिल यह है की स्वामित्व के अधिकार से बड़ा मसला समाज में उनके अधिकारों की स्वीकार्यता का है। जमीन के इस्तेमाल के बारे में उनके नजरिये को इस बात से समझा जा सकता है जो एक हिजड़ा गुरु ने बातचीत के सिलसिले मुझसे कही:
“
जीवन के अंत में तो हम सबको बस दो गज़ ज़मीन की दरकार है जहाँ मरने के बाद हमे दफ़नाया जा सके।
आज के चलन के विपरीत हिजड़ों की संस्कृति में निजी संपत्ति के बारे में यह समझ हमें सोचने के लिए मजबूर करती है कि : जहाँ दो व्यक्ति, दो समुदाय और दो जमीन के बीच की सीमा रेखा के हालात बहुत नाजुक स्थिति में है, वहीँ आखिर कौन ऐसी शक्ति है जो हिजड़ों को आम लोगों से अलग बनाती है, जिसका ज़मीन से एकमात्र रिश्ता मृत्यु का है।
हमारी आस-पड़ोस की आज की दुनिया में ज़मीन के छोटे से छोटे टुकड़े पर कब्जे की दावेदारी चल रही है। यह दावेदारी केवल व्यक्ति की नहीं बल्कि सरकारी और निजी निगमों, नगरपालिकाओं की भी है। इस प्रक्रिया में हिजड़ों की तरह लोगों के अनेक समूह हैं जो जमीन के छोटे-बड़े टुकड़ों पर बसे हुए हैं और उन टुकड़ों का अपनी तरह इस्तेमाल करके जीवित भी हैं। दुर्भाग्य से ये सर्वाधिक तिरस्कृत और उपेक्षित लोग हैं।
अगर हिजड़ों को ही देखे तो उन्होंने अपने लिए एक ऐसी जीवन-पद्धति विकसित की है जो इस मान्यता का विरोध और उससे जूझती है कि जमीन पर मालिकाना हक संपत्ति के अधिकारों से निर्धारित होते हैं। हिजड़े जिस तरह का जीवन जीते हैं वह किसी भी राजनितिक या सामाजिक यूटोपिया से कोसों दूर है। इसके बावजूद यह समुदाय अनियमित और बेतरतीब बसेरों की संस्कृति को बचाने और विकसित करने पर जोर देता है जो हमें उदारवादी समाजों की राजनीतिक कल्पनाशीलता के विस्तार का संदेश देता है।
हिजड़ों की जीवन-पद्धति का उदाहरण हमें संपत्ति की उदारवादी अवधारणा का औचित्य समझने और उससे प्रश्न करने के लिए प्रेरित करता है। आख़िरकार धार्मिक समुदायों को अनुदान के रूप में भूमि का स्वामित्व देने का क्या अर्थ है, जबकि उनका वास्तविक उद्देश्य तो मनुष्यता की सेवा करना है? इस प्रकार धार्मिक समुदाय भी क्या अन्य संपत्ति मालिकों की तरह नहीं हो जाएँगे? या अगर सरल भाषा में कहें तो, भू-स्वामित्व का अधिकार ही असल में अधिकारों के मूल उद्देश्यों को बनाने और उसके लिए समर्थन जुटाने की बजाए कहीं काउंटर प्रोडक्टिव तो नहीं बन जाएगा? क्योंकि जमीन के उपयोग के अधिकार को जमीन के मालिकाना हक की तुलना में अभी भी सम्मानित नहीं माना जाता है।
मार्क्सवादी भूगोलवेत्ता डेविड हार्वे ने कहा था कि अभिजात्यकरण और शहरी पुनर्विकास की दृष्टि से, जो लोग बतौर किरायेदार बड़े शहरों में रहते है, उन शहरों का “उपयोग” करते हैं, जो उन शहरों को रहने लायक जीवंत, बहुरंगी और आकर्षक बनाते हैं, वे दरअसल अचल संपत्ति के कारोबारियों और दूर बैठे जमीन के मालिकों को ही लाभ पहुँचाते हैं। उपयोग से हासिल होने वाला मालिकाना हक इस एकतरफ़ा लाभ और मुनाफे को ही ख़त्म करने का काम करता है और एक ऐसी दुनिया की कल्पना की बुनियाद रखते हैं जिसमें शहरों में रहने वाले और उसका उपयोग करने वाले लोग ही उसके असली मालिक होंगे।
ऐतिहासिक रूप से हिजड़े हमें यह भी बताते हैं कि अगर हम उदारवादी व्यवस्था का मोह त्याग कर, स्थान की अधिकतम उपयोगिता के सिद्धांत पर बल देकर विशेष स्वामित्व से बदल दें तो संपत्ति के बेहतर इस्तेमाल की संभावनाओं का विकल्प खुल सकता है। सीमाएं अभी भी हैं। इसके बावजूद हिजड़े हमे जीवन का वह रास्ता दिखाते हैं जो स्वामित्व पर निर्भर नहीं है।
उन्हें अलग-थलग करने के इतिहास ने उन्हें ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया है जहाँ उन्होंने एक ऐसी व्यवस्था को ढूँढ़कर उसे अपने अनुकूल ढाल लिया है की अब वह व्यवस्था उनकी विरासत बन चुकी है। यह बिल्कुल एक नए तरह का सामुदायिक मालिकाना हक है। सरल शब्दों में कहें तो हिजड़ों ने सैकड़ों साल की उपेक्षा की बिसात पलट दी है और स्वामित्व की व्यवस्था का एक नया महाकाव्य लिखा है जो हमें युगों के उदारवादी वैचारिकी के क्षितिज के पार देखने का आग्रह करता है।
(इना गोयल एक स्वतंत्र लेखक और लाडली मीडिया फेलो 2022 हैं। इना चाइनीज यूनिवर्सिटी ऑफ़ हांगकांग के एन्थ्रोपोलॉजी विभाग में पीएचडी कर रही हैं। इसके पहले उन्होंने जेएनयू (नयी दिल्ली) से सोशल मेडिसीन एंड कम्युनिटी हेल्थ में एम. फिल और दिल्ली यूनिवर्सिटी से मास्टर ऑफ़ सोशल वर्क की पढ़ाई की है। इस आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने निजी हैं जिसका लाडली और यूएनएफपीए से कोई सम्बन्ध नहीं है।)
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