हम दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था जल्द बन जायेंगे. लेकिन जब राष्ट्रीय राजधानी के पड़ोस के एक औद्योगिक शहर में अंडरपास में जलभराव के कारण जब एक बड़े आधुनिक निजी बैंक के दो वरिष्ठ अधिकारी कार के डूबने से मर जाते हैं तो तमाम सवाल खड़े हो जाते हैं। या जब सेमी-कंडक्टर निर्माण के लिए विदेशी उद्यमियों को लुभाने हेतु आयोजित सभागार में बारिश के बाद पानी टपकने लगता है और कारोबारी सुरक्षित कोना तलाशने लगते हैं तो सोचना पड़ता है कि हम कौन सी अर्थव्यवस्था बनने जा रहे हैं। या जब वे ट्रैफिक जाम में घंटों फंसे रहते हैं तो अर्थव्यवस्था का कौन सा पायदान याद आता है। सोचिये जब उसी दिन उसी प्रदेश का सीएम ऐलान करता है कि जिसे मस्जिद कहा जाता है वह साक्षात् शिब का मंदिर है तो विकास की प्राथमिकता हीं नहीं परिभाषा पर ही शक होने लगता है।
जब एक मंत्री की बैठक में एक उद्यमी जीएसटी नीति की विसंगतियों को बताता है जिससे मंत्री महोदया की किरकिरी होती है तो उसे अगले दिन माफी माँगने को मजबूर होना पड़ता है तब भी कंफ्यूजन होता है कि विकास किसके लिए, किस दिशा में, किसके द्वारा और किसके लिए किया जाना है. कोई “मोहब्बत की दूकान” लगा रहा है तो कोई “सबका विकास” कर रहा है तो फिर अंडरपास में जलभराव क्यों नहीं रुकता या अगर हो गया है तो प्रशासन उस पर आवागमन बाधित क्यों नहीं करता.
यह वही फरीदाबाद शहर है जहाँ एक हफ्ते पहले एक स्व-नियुक्त गौ-रक्षक ने 29 किलोमीटर पीछा कर एक सामान्य कार चालक को गौ-तस्कर समझ कर गोली मार दी. जिस राज्य में यह जिला है वहाँ चुनाव है और राजनीतिक पार्टी और नेता पहले की तरह इस बार भी “विकास” का दावा करते हुए वोट मांग रहे हैं. इनमें अधिकांश अपने को किसान बताते हैं क्योंकि कृषि-प्रधान इस राज्य में किसान अपनी खास खाप संस्था और हाल के आन्दोलन के जरिये एक वोट-बैंक बन गया है.
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हर बार चुनावों में विकास नेताओं के भाषण का मुख्य विषय-वस्तु होता है लेकिन आखिर क्या वजह है कि अंडरपास का जल-भराव और वह भी राजधानी में या उससे कुछ किलोमीटर दूर के एक विकसित शहर में आज भी लोगों की जान लेती है? क्या प्राथमिकता विवादग्रस्त सांप्रदायिक प्रतीकों की जगह अंडरपास नहीं हो सकता?
अविकास छिपाना
आरबीआई अपनी स्वायतत्ता को सरकार के हाथों गिरवी न रखने की कभी-कभी की गयी कवायद के तहत एक रिपोर्ट देता है जिसमें बिहार की बड़ी फजीहत होती है जबकि ओडिशा के शासन में विकास को बेहद सकारात्मक दिखाया जाता है. बिहार में भाजपा और जीडीयू का शासन है और पहले से भी लम्बे समय तक रहा है जबकि ओडिशा में नवीन पटनायक की पार्टी का शासन रहा और हाल हीं में सत्ता भाजपा के पास आयी. इसके एक हफ्ते के भीतर पीएम की आर्थिक सलाहकार परिषद ने एक और रिपोर्ट दी जिसमें 63 साल का ब्यौरा देते हुए बताया कि कैसे ममता बनर्जी के शासन काल में पश्चिम बंगाल की स्थिति बाद से बदतर होती गयी.
आरबीआई की वर्ष 2024 की रिपोर्ट से राज्यों में पिछले 12 वर्षों के गवर्नेंस की गुणवत्ता या इसका अभाव चौकाने वाला है. अगर इस काल-खंड में गरीबी के लिए कुख्यात राज्य की प्रति व्यक्ति आय दूनी हुई हो जबकि लगभग उतना ही गरीब दूसरा राज्य इस पैमाने पर सबसे नीचे हो तो क्या इसे नीतिगत फैसलों और उन्हें अमल में लाने में अक्षमता नहीं कहा जाएगा? ओडिशा की प्रति-व्यक्ति आय अगर इस काल में बिहार से तीन गुनी से ज्यादा हो गयी या अगर बिहार निम्न-आय वर्ग के राज्यों में अकेला राज्य है जहाँ वर्ष 2022-23 के मुकाबले वर्ष 2023-24 में विकास के मद में खर्च (20 प्रतिशत) घट गया हो जबकि नये राज्य तेलंगाना ने इसी मद में 27 प्रतिशत ज्यादा खर्च किया हो तो क्या इसे नीतिगत पक्षाघात (पालिसी पैरालिसिस) नहीं कहेंगे?
बिहार में गिरते पुल विकास की कहानी बताने को काफी हैं। फाइल फोटो
एक ज़माने में ओडिशा में कालाहांडी की भूखमरी दुनिया भर में चर्चा में रही थी. गौर से देखें तो ओडिशा और बिहार का जीडीपी आयतन लगभग समान है लेकिन इस काल में ओडिशा ने जनसँख्या वृद्धि पर नियंत्रण किया जबकि बिहार पूरी तरह असफल रहा लिहाज़ा दोनों के आबादी घनत्व में तीन गुने से ज्यादा का अंतर है. इसका नतीजा यह हुआ कि “आबादी डायन” राज्य के आर्थिक विकास को लीलती गयी. इसका सीधा मतलब है शासनकर्ताओं को केवल पांच तारा होटलों में “बिज़नेस कॉन्क्लेव” करा कर “एमओयू” पर हस्ताक्षर कराने से खुश नहीं होना चाहिए.
अयोध्या का रामपथ का हाल तो मत ही पूछिये। फाइल फोटो
यूपी में लाखों करोड़ के एमओयू साइन हुए लेकिन आरबीआई के अनुसार बड़े राज्यों में सबसे कम एफडीआई इसी राज्य में आया. सरकारें पहले कानून व्यवस्था बेहतर करें, फिर आबादी का घनत्व स्थिर करें, उसके बाद इंफ्रास्ट्रक्चर में खर्च करें और तब “इज ऑफ़ डूइंग बिज़नस” पर खरे उतर कर उद्यमियों को आकर्षित करें. सांप्रदायिक सौहार्द्र, अपराधियों पर निष्पक्ष रूप से प्रभावी नियंत्रण और भ्रष्टाचार शून्य प्रशासन विकास की पूर्व और अपरिहार्य शर्तें हैं. महाराष्ट्र को अब इन्फ्रा-स्ट्रक्चर पर खर्च नहीं करना है लेकिन उत्तर भारत के पिछड़े राज्यों को कई आयामों पर काम करना होगा.
इसके एक हफ्ते के भीतर हीं खैरख्वाह “पीएम-आर्थिक सलाहकार परिषद” (पीएम-ईएसी) ने एक रिपोर्ट दी जिसमें राज्यों के विकास के विगत 63 साल के काल के एक तुलनात्मक अध्ययन में किया गया. रिपोर्ट ने बताया कि पश्चिम बंगाल की प्रति-व्यक्ति आय में लगातार अन्य राज्यों के मुकाबले ह्रास हुआ है. यह राज्य देश की जीडीपी में इस काल में योगदान 10.5 प्रतिशत से घट कर 5.6 प्रतिशत रह गया है.
उपराष्ट्रपति जो राज्यसभा के पदेन सभापति भी हैं, ने हिंदी-अंगरेजी मिश्रित मुम्बई भाषण में दो बातें कहीं. उन्होंने कहा “किसी भी संस्था के उपादेय होने के लिए जरूरी है कि वह अपनी सीमायें पहचाने. कुछ सीमायें स्पष्ट होती हैं और कुछ सूक्ष्म और अव्यक्त होती हैं. कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका जैसे पवित्र संस्थाओं को राजनीतिक विवादों का उद्गम स्रोत न बनायें, क्योंकि अमर्यादित टिप्पणियाँ से उत्साह क्षीण होता है”. उन्होंने चुनाव आयोग, जांच एजेंसियों के अपने कर्तव्य को बखूबी निभाने वाली एजेंसी बताते हुए कहा कि ये संस्थाएं स्वतंत्र रूप से काम करत्ती हैं”.
उपराष्ट्रपति धनखड़ के बयान और कई अदायें बहुत कुछ बताने के लिए काफी हैं
उपराष्ट्रपति के इस कथन को हाल में एक एससी एक जज द्वारा फैसले में सीबीआई को “पिंजरे में बंद तोता न बनने की हिदायत” के प्रतिक्रिया में दिया गया बयान माना जा रहा है. उन्होंने यह भी कहा “संवैधानिक पदों पर बैठे लोग संविधान को अपवित्र कर रहे हैं.कितनी बड़ी विडम्बना है कि उनके विदेश यात्रा का उद्देश्य ..,,भारतीय संविधान की आत्मा को तार-तार करना” है. उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे ऐसी राष्ट्रविरोधी ताकतों से लड़ें. कांग्रेस नेता राहुल गाँधी इन दिनों विदेश यात्रा पर हैं. उपरोक्त दोनों टिप्पणियाँ बगैर किसी संस्था या व्यक्ति का नाम लिए की गयीं. इनमें परोक्ष रूप से एससी को, जो एक संवैधानिक संस्था है और नेता विपक्ष को, जो एक कानूनी (न कि संवैधानिक) संस्था है, नसीहत और पूर्व के कांग्रेस शासन की आलोचना भी है.
संविधान के अनुच्छेद 63 के तहत उपराष्ट्रपति की संस्था भी संवैधानिक संस्था है और राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में वेस्टमिन्स्टर सिस्टम की संसदीय प्रणाली में उनसे पूरी तरह पार्टी-पॉलिटिक्स से परे रहने की अपेक्षा रहती है. राजनीतिक नेता और कार्यपालिका के सर्वोच्च पद के रूप में पीएम से, जो एक संवैधानिक संस्था तो है, ऐसी किसी गैर-राजनीतिक मर्यादा की अपेक्षा नहीं होती. सॉमरसेट मॉम का एक मशहूर कथन है “यह के अजीब दुनिया है जहां हर व्यक्ति जो काम (गोल्डन बबल को अंजाम देना) खुद करता है वही जब दूसरा करता है तो उस पर हंसता है.
(वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं)
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