देश में कांग्रेस ने भी वंचित तबके़ की लड़ाई लड़ी और इससे अलग होकर कुछ नेताओं ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी या अन्य कई छोटे-मोटे दल बनाकर लड़ाई लड़ी।
मुलायम, लालू बने बड़े नेता
कांग्रेस जहाँ सवर्ण समुदाय के साथ दलितों, पिछड़ों को लेकर चल रही थी, वहीं उसी के समानांतर पिछड़े वर्ग के नेता अपनी समाजवादी रणनीति की लड़ाई लड़ रहे थे। उत्तर प्रदेश और बिहार में चली इस जंग में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव वंचितों के बड़े नेता के रूप में उभरे। उन्होंने अपने राज्यों में सामंतवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी, वंचित तबके़ को संसद और विधानसभाओं तक पहुँचाया और कांग्रेस को उखाड़ फेंका।
लालू और मुलायम सिंह, दोनों नेताओं के परिवारों में सांसदों और विधायकों की संख्या बढ़ती गई। यादवों के नेता अपने परिवार के नेता में तब्दील होने लगे।
उत्तर प्रदेश में एक दौर वह भी आया जब मुलायम सिंह परिवार के अखिलेश यादव मुख्यमंत्री, शिवपाल यादव दूसरे नंबर के कैबिनेट मंत्री और परिवार में 5 सांसद हो गए। इसके अलावा तमाम छोटे पदों पर इन परिवारों के लोग काबिज हुए।
इसी तरह से लालू प्रसाद यादव की राजनीति में उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री हुईं। राबड़ी देवी के भाई साधु यादव और सुभाष यादव जबरदस्त चर्चा में आए। उनके विभिन्न किस्से, कहानियाँ, कारनामे अखबारों की सुर्खियाँ बनने लगे।
कर्पूरी ठाकुर ने लड़ी लड़ाई
सामाजिक न्याय की शुरुआती लड़ाई में ऐसा नहीं था। अगर बिहार की राजनीति को देखें तो राज्य में सबसे अहम शुरुआती काम कर्पूरी ठाकुर का रहा है। कर्पूरी नाई जाति के थे। अगर वह अपनी जाति की राजनीति करते तो संभवतः उनका विधायक बन पाना भी संभव नहीं था, लेकिन वह राज्य के मुख्यमंत्री बने और आज भी बिहार में पिछड़े वर्ग में उनकी लोकप्रियता शिखर पर है। कर्पूरी अपने भाषणों, संघर्षों, वंचितों के लिए आवाज उठाने के लिए जाने जाते थे।कर्पूरी ठाकुर ने कहा था, ‘यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो जनता आज नहीं तो कल संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी।’ ठाकुर का नारा था, ‘हक़ चाहो तो लड़ना सीखो, क़दम-क़दम पर अड़ना सीखो, जीना है तो मरना सीखो।’
चरण सिंह ने जमींदारी उन्मूलन विधेयक तैयार कराया और 1952 में यूपी से जमींदारी प्रथा ख़त्म हुई और ग़रीबों को उनका हक़ मिला। उत्तर प्रदेश भूमि संरक्षण क़ानून पारित कराने में भी चरण सिंह की अहम भूमिका रही।
उत्तर प्रदेश में अर्जक संघ की स्थापना करने वाले रामस्वरूप वर्मा न तो कभी जातीय गणित में पड़े, न एक जाति के नेता बन पाए। कानपुर के एक किसान कुर्मी परिवार में जन्मे वर्मा ने हमेशा वंचितों के हक़ों की लड़ाई लड़ी।
जातीय गणित से चुनाव जीत लेने के इतर रामस्वरूप वर्मा वंचित जातियों को एकजुट करने की क़वायद में लगे रहते थे। वर्मा ने ‘मनुवादी प्रश्नोत्तरी’, ‘क्रांन्ति क्यों और कैसे’, ‘मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक’, ‘निरादर कैसे मिटे’, ‘ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा’, ‘अछूत समस्या और समाधान’, ‘ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे?’, ‘अंबेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली’, ‘भंडाफोड़’, ‘मानववादी प्रश्नोत्तरी’ जैसी किताबें लिखीं। उन्होंने किसी जाति विशेष या जातीय गणित पर जोर न देकर वंचित तबके़ को एकजुट करने का काम किया और उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री पद तक पहुँचे।
ललई यादव का कहना था कि सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है। ललई की किताब ‘आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश’ के ख़िलाफ़ 1973 में मुक़दमा चला।
ललई सिंह यादव ने 5 नाटक- अंगुलिमाल, शंबूक वध, संत माया बलिदान, एकलव्य, नाग यज्ञ नाटक व तीन पुस्तकें शोषितों पर धार्मिक डकैती, शोषितों पर राजनीतिक डकैती और सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो? लिखीं।
इन महान विचारक राजनेताओं से तुलना करें तो सामाजिक न्याय के मौजूदा लड़ाके अख़बारों, वेबसाइटों में एक लेख भी नहीं लिख पाते, किताब लिखना तो दूर की बात है। वहीं, जहाँ पुराने समाजवादी व सामाजिक न्याय समर्थक नेता एक साँस में कई दर्जन वंचित जातियों के नाम गिना देते थे, इस समय के नेता कुछेक जातियों तक ही सिमट जाते हैं।
सिर्फ़ यह देखा जाता है कि किस जाति की आबादी लोकसभा या विधानसभा में है। उसी को चुनाव के दौरान टिकट देने की क़वायद की जाती है। वंचित तबके़ की पीड़ा और उनकी समस्याएँ गौण हो चुकी हैं।
अब उत्तर प्रदेश और बिहार की सामाजिक न्याय की लड़ाई कुनबे की लड़ाई में तब्दील हो गई है। नेता वैचारिक पुस्तकें लिखने, वंचित तबके़ को एकजुट करने की क़वायद में नहीं, बल्कि जातीय गोटियाँ बैठाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
इन दलों के रडार पर न तो फ़ासीवादी, मनुवादी, जातिवादी ताक़तों के हमले झेल रहा वंचित तबका है, न संयुक्त रूप से मिलकर लड़ने का मकसद। सामाजिक न्याय परिवार तक सिमटकर दम तोड़ रहा है।
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