वेणुगोपाल ने यह भी कहा कि इस तरह के गोपनीय दस्तावेज़ की चोरी सरकार के गोपनीयता क़ानून का उल्लघंन है और सरकार इस पर कार्रवाई के लिए पूरे मामले की जाँच कर रही है।
वेणुगोपाल को देनी पड़ी सफ़ाई
वेणुगोपाल के बयान से यह मतलब निकाला गया कि सरकार ‘द हिंदू’ अख़बार के वरिष्ठ पत्रकार एन. राम के ख़िलाफ़ कार्रवाई की योजना बना रही है। बाद में वेणुगोपाल ने सफ़ाई दी कि सरकार का पत्रकारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का कोई इरादा नहीं है। वेणुगोपाल ने कहा कि सरकार दस्तावेज़ों की चोरी करके प्रेस तक पहुँचाने वाले सरकारी अधिकारियों पर कार्रवाई के बारे में सोच रही है।
एडिटर्स गिल्ड ने सरकार को चेताया
मीडिया वेणुगोपाल की सफ़ाई से संतुष्ट नहीं हुआ। ‘द एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया’ ने वेणुगोपाल की टिप्पणी की भर्त्सना की। गिल्ड के अध्यक्ष शेखर गुप्ता, महासचिव ए. के. भट्टाचार्य और कोषाध्यक्ष शीला भट्ट ने एक बयान में कहा कि सरकार मीडिया की आज़ादी पर अंकुश लगाने वाली किसी भी कार्रवाई से बाज़ आए। गिल्ड ने कहा कि किसी भी तरह की कार्रवाई से मीडिया की आज़ादी ख़तरे में पड़ सकती है और रफ़ाल विमान सौदे जैसे मुद्दे पर रिपोर्ट या टिप्पणी करने की प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लग सकता है।
एडिटर्स गिल्ड जिस ख़तरे की तरफ़ संकेत कर रहा है, उसे आसानी से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। लंबे समय से मीडिया को नियंत्रित करने की अप्रत्यक्ष कोशिशें चल रही हैं।
मोदी-शाह के अजेंडे पर हो रही पत्रकारिता
सरकार के दबाव में ज़्यादातर टीवी चैनल और अख़बार भोंपू की तरह व्यवहार कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का अजेंडा खुले तौर पर टीवी न्यूज़ चैनलों को अजेंडा बन चुका है। यह साफ़ तौर पर दिखाई दे रहा है कि सरकार नहीं चाहती कि चुनाव की इस बेला में भ्रष्टाचार और आर्थिक या सामाजिक मुद्दों पर बहस हो। मोदी- शाह की जोड़ी इन दिनों राष्ट्रवाद और देश भक्ति का राग अलाप रही है।
सरकार की दुखती रग है रफ़ाल
पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकवादियों के ठिकानों पर भारतीय वायु सेना की बमबारी के बाद तो यह भी भुलाने की कोशिश की जा रही है कि पुलवामा हमला जिसमें सीआरपीएफ़ के 40 से ज़्यादा जवान शहीद हो गए, उसके लिए भारत सरकार भी कहीं न कहीं ज़िम्मेदार है। आख़िर इतना विस्फोटक आतंवादियों को मिला कैसे? हमारा ख़ुफ़िया तंत्र कैसे फ़ेल हुआ? ऐसे ही सवालों से सरकार बचना चाहती है। ऐसे में रफ़ाल विमान सौदा अगर घूम-फिर कर फिर से बड़ा मुद्दा बनता दिखाई देता है तो सरकार का खलबलाना स्वाभाविक ही है।
सुप्रीम कोर्ट के पिछले फ़ैसले के बाद सरकार निश्चिंत हो गई थी कि रफ़ाल विमान सौदा अब कोई मुद्दा नहीं बन पाएगा। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि सीएजी ने इसकी जाँच कर ली है और संसद की लोक लेखा समिति भी इसे देख चुकी है। बाद में यह मामला खुला कि रफ़ाल सौदे की रिपोर्ट संसद की लोक लेखा समिति में पेश नहीं हुई थी। इसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर दायर पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई हो रही है।
पीएमओ ने किया हस्तक्षेप
फ़रवरी में रक्षा मंत्रालय की कुछ गोपनीय फ़ाइलों के आधार पर ‘द हिंदू’ अख़बार ने एक ख़बर छापी। ख़बर में बताया गया कि इस सौदे में रक्षा मंत्रालय की पूरी तरह उपेक्षा की गई और प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने अपनी सीमा तोड़कर फ़्रांस की सरकार से सीधे बातचीत की और रफ़ाल सौदा तय कर दिया। भारत में रफ़ाल बनाने का काम उद्योगपति अनिल अंबानी को सौंपने का फ़ैसला इसी सौदे का हिस्सा था।
सरकार ने क्या कार्रवाई की?
बहस के दौरान अटार्नी जनरल वेणुगोपाल ने कोर्ट से कहा कि पुनर्विचार याचिका ख़ारिज कर देनी चाहिए क्योंकि वह रक्षा मंत्रालय से चुराए गए दस्तावेज़ों पर आधारित है। फ़िलहाल कोर्ट ने इस दलील को नहीं माना है और सरकार से पूछा कि दस्तावेज़ चुराए गए तो सरकार ने क्या कार्रवाई की? यहाँ ऐसे कई सवाल उठते हैं जिसका जवाब अटार्नी जनरल वेणुगोपाल या सरकार ने नहीं दिया।
पहला सवाल यह कि क्या यह सच है कि रफ़ाल सौदे को प्रधानमंत्री कार्यालय ने फ़ाइनल किया? दूसरा सवाल यह कि रक्षा मंत्रालय को इस सौदे से दूर क्यों रखा गया?
भारत की खुली लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया पर इमरजेंसी जैसा नियंत्रण संभव नहीं है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के दबाव से भी पारम्परिक मीडिया यानी अख़बार और टी. वी. न्यूज़ चैनल कभी न कभी सच बोलने के लिए मजबूर हो जाते हैं।एडिटर्स गिल्ड के साथ-साथ मीडिया के अन्य संगठन भी वेणुगोपाल की टिप्पणी से चिंतित दिखाई दे रहे हैं।
एडिटर्स गिल्ड के भीतर से अब यह आवाज़ भी उठ रही है कि सरकारी गोपनीयता क़ानून जैसे क़ानूनों के बेजा इस्तेमाल को रोकने के लिए ठोस तैयारी और कार्रवाई होनी चाहिए।
पहले भी होती रही हैं कोशिशें
यह पहला मौक़ा नहीं है जब कोई सरकार मीडिया को चुप कराने के लिए क़ानून का सहारा लेने के बारे में सोच रही हो। पहले की सरकारों में भी ऐसी कोशिशें हुईं। टी. वी. न्यूज़ को नियंत्रित करने की कोशिश पिछली सरकार में भी शुरू हुई थी लेकिन पत्रकारों के दबाव से सरकार को क़दम पीछे खींचने पड़े थे।
हर हाल में चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लोलुप नेताओं से मीडिया को हर दम ख़तरा बना रहता है। वैसे ही ख़तरों के संकेत अब मिल रहे हैं और यह एक गंभीर चुनौती है।
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