राजनाथ सिंह हों या नितिन गडकरी, सब अमित शाह का लोहा मानते हैं। शाह, केंद्र की सरकार में किसी भी पद पर नहीं हैं लेकिन सरकार के किसी भी कैबिनेट मंत्री से ज़्यादा उनका सिक्का चलता है।
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि उनका फ़ोन आ जाए तो मंत्री काँप उठते हैं। किसे पार्टी की तरफ़ से टिकट देना है या नहीं देना है, यह या तो वह तय करते हैं या फिर प्रधानमंत्री मोदी।
यहाँ तक कि मंत्रियों को कौन सा विभाग मिले या न मिले या किस विभाग से अदला-बदली हो, यह भी अमित शाह की मर्ज़ी से तय होता है, ऐसी चर्चा पत्रकार चटखारे लेकर सुनाते हैं। ऐसे में शाह अगर आगे का ख़्वाब देखते हैं तो इसमें बुरा क्या है?
आज के अमित शाह को देख कर यह यक़ीन करना मुश्किल है कि यह वही शख़्स हैं जो 2014 के पहले तक गुमनामी के अंधेरे में थे। वह गुजरात नहीं जा सकते थे। वह दिल्ली में स्थित गुजरात भवन में गर्दिश के दिन काट रहे थे।
सोहराबुद्दीन शेख़ एनकाउंटर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शाह को गुजरात से तड़ीपार घोषित कर रखा था। दिल्ली में छोटे-बड़े बीजेपी नेता उन्हें भाव नहीं देते थे। ख़बर तो यहाँ तक है कि कुछ छुटभैये नेता उन्हें मिलने के लिए समय नहीं देते थे या मिलने से पहले इंतज़ार करवाया करते थे।
मोदी बने पीएम उम्मीदवार, बदली क़िस्मत
अमित शाह की क़िस्मत ने अचानक पलटा खाया जब 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया। मोदी उनपर काफ़ी भरोसा करते थे। मोदी यह जानते थे कि बिना यूपी जीते प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना ग़लत होगा। राजनाथ सिंह तब पार्टी के अध्यक्ष थे। राजनाथ यूपी से आते हैं। मोदी ने राजनाथ से कहा कि वह अमित शाह को यूपी बीजेपी का इंचार्ज बना दें। राजनाथ सिंह ने यही किया। अमित शाह की क़िस्मत का ताला खुल गया। मोदी को बनारस से लड़ाने का फ़ैसला शाह का ही था। साथ ही छोटी-छोटी जातियों के संगठनों से गठबंधन करने की उनकी रणनीति भी कारगर साबित हुई।
अमित शाह के बारे में यह कहा जाता है कि चुनाव लड़ाने में उनका कोई सानी नहीं है। यूपी जाते ही वह समझ गए कि जातिगत समीकरण बैठाए बिना बीजेपी को जिताना मुश्किल होगा। जाटव वोट पूरी तरह से बीएसपी के साथ था और समाजवादी पार्टी के पास एकमुश्त यादव वोट थे।
मोदी के करिश्मे और अमित शाह की संगठन क्षमता ने यूपी में चमत्कार कर दिया। बीजेपी 80 में से गठबंधन के साथी अपना दल के साथ 73 सीटों पर क़ब्ज़ा जमाने में कामयाब रही। और मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने में यूपी ने बड़ी भूमिका निभाई।
अमित शाह के लिए यूपी के नतीजे वरदान बनकर आए। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अमित शाह को पुरस्कृत किया और राजनाथ सिंह के गृह मंत्री बनने के बाद उनको पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी।
गुजरात में मोदी के साथ लंबे समय तक काम करने का शाह को फ़ायदा हुआ। और कुछ ही दिनों मे यह साफ़ हो गया कि अमित शाह और मोदी की जोड़ी ही देश को चलाएगी। हुआ भी यही। अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी ने बीस से ज़्यादा राज्यों में सरकार बनाई या सरकार में हिस्सेदारी की।
धीरे-धीरे यह साफ़ हो गया कि मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्रियों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। सब मोदी-अमित शाह के हाथ की कठपुतलियाँ मात्र हैं। लिहाज़ा, दिल्ली की गद्दी पर गुजरात के दो दिग्गजों का क़ब्ज़ा हो गया और बाकी नेता टोह लेते रह गए।
मोदी के आँख, कान, नाक थे शाह
ऐसे में अगर अमित शाह 2024 के लिए सपने बुन रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है? गुजरात में वह मोदी के मंत्रिमंडल में गृह राज्य मंत्री थे। और उनकी वैसे ही तूती बोलती थी जैसे कि इस समय दिल्ली में बोलती है। वह मोदी के आँख, कान, नाक थे। इस दौरान उनपर सोहराबुद्दीन शेख़, उसकी पत्नी और साथी तुलसी प्रजापति का फ़र्जी एनकाउंटर करवाने का आरोप लगा। सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद उन्हें जेल भी जाना पड़ा और गुजरात से तड़ीपार भी हुए।
मोदी सरकार बनने के बाद सोहराबुद्दीन फ़र्जी एनकाउंटर मामले में शाह को सीबीआई कोर्ट से क्लीन चिट मिल गई। मामले की सुनवाई कर रहे एक जज लोया की संदिग्ध मौत में फिर उनका नाम उछला पर सुप्रीम कोर्ट से वह फिर मुक्ति पा गए।
सीबीआई कोर्ट के फ़ैसले को आगे चुनौती न देने का सीबीआई का फ़ैसला रहस्य के आवरण में है। ऊँची अदालत में फ़ैसले को चैलेंज करना था पर वह नहीं हुआ। लिहाज़ा, अमित शाह सारे मामलों से बरी हैं।
सत्ता पाना ही एकमात्र लक्ष्य
अमित शाह के बारे में मशहूर है कि वह चाणक्य को अपना आराध्य देव मानते हैं। उनके घर में चाणक्य की तस्वीर टँगी रहती है। चाणक्य की तरह ही लक्ष्य साधने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करने में शाह क़तई नहीं हिचकिचाते। शाह को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि साधन उचित है या अनुचित। सत्ता पाना उनका सबसे बड़ा लक्ष्य है।
अमित शाह के अध्यक्ष रहते हुए बीजेपी न केवल देश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई बल्कि चुनाव लड़ने वाली ऐसी मशीन में तब्दील हो गई जिसे हराना 2017 तक लगभग असंभव माना जाने लगा।
अपनी राय बतायें