भूख से होने वाली मौत का इलाज डॉक्टर या अस्पताल के पास नहीं है लेकिन बिहार में यही करने की कोशिश हो रही है। बिहार के मुजफ़्फ़रपुर जिले में चमकी बुखार जिसे इंसेफ़ेलाइटिस के ग़लत नाम से भी पुकारा जा रहा है, 154 बच्चों की मौत इसका एक शर्मनाक उदाहरण है। मरने वाले सारे बच्चे झोपड़ी में रहने वाले अत्यंत ग़रीब परिवारों से थे, उन्हें भरपेट खाना नहीं मिल रहा था। सरकारी भाषा में इसे मल न्यूट्रीशन या कुपोषण कहा जाता है।
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मौतों का यह सिलसिला 2013 में शुरू हुआ। तब 143 बच्चों की मौत हुई थी। उस समय इसे रहस्यमय बीमारी कहा गया। बाद में डॉक्टरों और शोधकर्ताओं ने रहस्य पर से पर्दा उठा दिया। 2014-15 में ही पता लगा लिया गया कि यह बीमारी इंसेफ़ॉलोपैथी है। इस बीमारी में ब्लड शुगर (शर्करा) की मात्रा अचानक इतनी कम हो जाती है कि दिमाग को ज़रूरी शुगर मिलना कम हो जाता है जिससे तेज़ बुखार, उल्टी और बेहोशी जैसी स्थितियाँ पैदा होती हैं। इसका तुरंत इलाज शुरू नहीं किया जाए तो मरीज की मौत हो जाती है।
अब सवाल यह है कि यह बीमारी आमतौर पर बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले में मई-जून के महीने में ही महामारी की तरह क्यों फैलती है। डॉक्टरों और शोधकर्ताओं ने इसका पता भी 2014-15 में ही लगा लिया था।
मुज़फ़्फ़रपुर और इसके आसपास के इलाक़ों में लीची के बाग हैं। इन बाघों की रखवाली और लीची को पेड़ से तोड़कर बाहर भेजने के यानी पैकिंग का काम करने के लिए हज़ारों ग़रीब परिवारों को रखा जाता है। आमतौर पर ये ग़रीब मजदूर बागों में ही झोपड़ी बनाकर परिवार के साथ रहते हैं। इनके बच्चे दिन भर पेड़ से गिरी लीची को खाते रहते हैं आम तौर पर वे कच्ची लीची खाते हैं और रात को कुछ और खाए बिना सो जाते हैं।
शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि कच्ची लीची में एक ख़ास तरह का रसायन होता है जो भूखे पेट सोने वाले बच्चों के शरीर में ग्लूकोज बनना रोक देता है। इससे दिमाग को ग्लूकोज मिलना बंद हो जाता है और बच्चे इंसेफ़ॉलोपैथी के शिकार हो जाते हैं।
ये तीन काम करे सरकार
ज़ाहिर है कि इस बीमारी की रोकथाम बहुत आसान है। कोई भी सरकार तीन काम करके इस बीमारी को रोक सकती है। पहला, लीची के बागानों में काम करने वाले मजदूरों को प्रशिक्षित किया जा सकता है कि बच्चों को रात में भरपेट खाना खिलाए बिना नहीं सोने दें। दूसरा, सरकार इन परिवारों के लिए दो-तीन महीने शाम के खाने का इंतजाम कर सकती है। तीसरा, सरकार लीची बागान में काम करने वाले मजदूरों को उचित मजदूरी दिलाने की व्यवस्था कर सकती है ताकि उनका परिवार दोनों वक़्त पूरा खाना खा सके। बिहार सरकार ने इन उपायों पर कभी ध्यान नहीं दिया। पूरे राज्य में आशा, आंगनबाड़ी और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। उनके जरिये मजदूरों को कच्ची लीची खाने के बाद कुछ और खाए बिना सोने को लेकर जागरूक किया जा सकता था।सरकार बच्चों के लिए मिड-डे मील स्कीम चलाती है। इस स्कीम के जरिए लीची बागान में पलने वाले बच्चों को खाना दिया जा सकता था। लेकिन ऐसी कोई ठोस कोशिश नहीं की गई।
बेहद ख़राब हैं स्वास्थ्य सुविधाएँ
दरअसल, 2015 के बाद से मौतों की संख्या कम हो गई, इसलिए सरकार का ध्यान भी इस तरफ से हट गया। बिहार सरकार के लिए बीमारी की रोकथाम का काम शायद मुश्किल भी है। इसका एक कारण यह है कि आशा, आंगनबाड़ी और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र लगभग ठप हैं। इनके कर्मचारी सिर्फ़ वेतन लेने के लिए हाजिर होते हैं। इनमें ज्यादातर नियुक्तियाँ राजनीतिक हैं। प्रशासन का उन पर कोई नियंत्रण नहीं है। इसके अलावा इनके पास साधन भी नहीं हैं।दुर्भाग्य से महामारी फैल ही जाए तो इलाज का इंतजाम बिहार में कैसा है, इस पर भी एक नज़र डाल लेते हैं। इस बार बच्चों की मौत की जाँच के लिए सात डॉक्टरों की एक टीम ने मुज़फ़्फ़रपुर के मेडिकल कॉलेज और पीड़ित क्षेत्र का दौरा किया। इस टीम में ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट के डॉ. हरजीत सिंह भाटी, अजय वर्मा, आईजीआईएमएस के अमरनाथ यादव, स्वास्थ्य कार्यकर्ता चित्रांगदा सिंह आदि लोग शामिल थे।
इनकी प्रारंभिक रिपोर्ट में बताया गया है कि मुज़फ़्फ़रपुर के श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की इमरजेंसी में हर दिन क़रीब 500 मरीज आते हैं लेकिन उनकी देखभाल के लिए सिर्फ़ चार डॉक्टर और तीन नर्स हैं। दवा और उपकरणों की भारी कमी है। आईसीयू और रोगी वार्ड में भारी बदइंतजामी है। ऐसे में नाजुक रोगियों का कितना इलाज हो पाएगा, समझा जा सकता है।
पूरे बिहार में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था लगभग चरमरा रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पटना मेडिकल कॉलेज में 40% और दरभंगा मेडिकल कॉलेज में 50% डॉक्टरों की कमी है।
बिहार में डॉक्टरों के स्वीकृत पदों की संख्या 11,734 है लेकिन इस समय क़रीब 6000 डॉक्टर ही उपलब्ध हैं। क़रीब 2000 डॉक्टर ठेके पर रखे गए हैं। सरकार के पास स्वास्थ्य सेवा पर ख़र्च के लिए पर्याप्त पैसा भी नहीं है। 2019-20 के बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च के लिए 9622 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। यह कुल बजट का क़रीब 4% है। इनमें डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवा के अन्य कर्मचारियों का वेतन वग़ैरह भी शामिल है। तो एक तरफ़ राज्य की एक बड़ी आबादी को पीने का साफ़ पानी भी उपलब्ध नहीं है तो दूसरी तरफ़ इलाज का इंतजाम नहीं है। ऐसे में मौत सिर्फ़ एक संख्या भर है जो कुछ समय तक मीडिया की सुर्खियों में लहरा कर किसी सरकारी तहखाने में दफ़न हो जाती है।
यह स्थिति सिर्फ़ बिहार की नहीं है। केंद्र में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद जिस तरह देश की स्वास्थ्य नीति बदली जा रही है, वह आने वाले दिनों में ग़रीब को लाइलाज बना सकती है। 2014 तक जीडीपी का क़रीब 1.9% स्वास्थ्य सेवा पर ख़र्च हो रहा था। 2018-19 में यह कम होकर क़रीब 1.2% हो गया।
मनमोहन सिंह की सरकार ने स्वास्थ्य सेवा पर जीडीपी का 6% ख़र्च करने का वादा किया था। मोदी सरकार में यह लगातार कम होता जा रहा है। अब सरकार का जोर बीमा और प्राइवेट सेक्टर पर ज़्यादा है। प्राइवेट अस्पताल में ग़रीबों के इलाज के लिए बीमा योजना चलाई जा रही है।
सरकार ने पिछले साल बीमा के लिए क़रीब 12000 करोड़ की व्यवस्था की थी। इससे प्राइवेट सेक्टर में इलाज का फायदा सिर्फ़ 3,60,000 लोगों को मिला। ज़ाहिर है कि बीमा कंपनियों को मोटी रकम मिली। मोदी सरकार को सोचना होगा कि मुज़फ़्फ़रपुर के बच्चों को कौन से सरकारी बीमा का फायदा मिलेगा।
इलाज पर ख़र्च से बढ़ी ग़रीबी
एक रिपोर्ट बताती है कि क़रीब 70% लोग इलाज के लिए प्राइवेट सेक्टर की तरफ़ जाने को मजबूर हैं। इससे स्वास्थ्य से जुड़ी कंपनियों और प्राइवेट अस्पतालों को सालाना 10 लाख करोड़ का फायदा हो रहा है। सिर्फ़ इलाज पर ख़र्च के कारण हर साल क़रीब 6 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे चले गए हैं। मकान, खेत और गहने सब बिक जाते हैं।
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ज़ाहिर है कि प्राइवेट सेक्टर देश के स्वास्थ्य को बिगाड़ रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकारी अस्पतालों और दूसरी सुविधाओं पर ख़र्च को जीडीपी के 10% तक लाने की ज़रूरत है। केंद्र सरकार का रुझान अमेरिका की तरह प्राइवेट सेक्टर पर है जबकि ज़रूरत यूरोप ख़ासकर इंग्लैंड की तरह सरकारी या सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की है।
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